वाह री कुर्सी !
वाह री कुर्सी!
सबको नचाये ता था थैया,
इसकी धुन पर सब नाचे भैया,
सबको इससे मोह बड़ा है,
स्वाद इसका ईद की सेवैय्याँ।
नाम इसका कुर्सी है,
काम इसका शासन है,
इसकी महिमा अपरम पार,
ये दुर्योधन, दुशाशन है।
इसकी उड़ान बेहद ऊंची,
झुकाव इसका बेहद नीचा,
जो भी इसके उप्पर विराजे,
करता रहे वो कोई ना कोई फजीता।
कुर्सी एक माया है,
सबका दिल इसपर आया है।
कुर्सी एक लोभ है,
डोले इसके इशारे पर सारा ग्लोब है।
कुर्सी एक गुरुर है,
इसका अपना सुरूर है।
कुर्सी एक फान्द है,
सत्ता की मान्द है।
कुर्सी एक जरिया है,
अपेक्षाओ का दरिया है।
कुर्सी एक मनचला मोह है
ना इसके आने की आमद, ना जाने की मिलती टोह है।
कुर्सी में स्वार्थ,चालाकी कूट-कूट कर भरी होती है,
सब इसके होते हैं पर ये किसी की नहीं होती है।
कुर्सी यानी की चेअर-चेलाज आर ऑलवेज इन द एअर!
इट्ज़ नौट एट आल फेअर!
लेकिन क्या करें दोस्तों-
जो भी बैठा कुर्सी की पीठ पर उसकी पीठ थपथपाई
जाती है,
उसमें काबिलियत की भरपाई की जाती है।
तूती उसकी बोलती है,
नए पट खोलती है।
हमें तो बस इतना पता है के हमें ना भाई कुर्सी
के हमें ज़मीन पर बैठने की आदत है,
झूठी सांठ-गाँठ से कोसो दूर हैं हम,
सदाकत की सदा वकालत करना ही हमारी इबादत है।
सोनल निर्मल नमिता