वामा हूं
वामा हूँ
हर एक रूप में, सदा सबल हूँ, नहीं, कहीं अबला में।
घर बाहर सब को संभालती, आज स्वयं सबला मैं।
मैं वामा, पर वाम नहीं हूँ, रहती सबसे दांँए।
मेरे ही प्रभाव से जग में, सभी कार्य हो पाएँ।
धरती घूमे चाक सरीखी, करे निरंतर फेरा।
जो गढ़ती नित-नूतन सपने, वही रूप है मेरा।
घूम रहा करघे सा जीवन, सभी निरंतर घूमें।
मैं बुनती सपने और रिश्ते, सबके दिल को छू लें।
प्रत्यंचा पर सधे तीर सी, लक्ष्य वेध को आतुर।
यंत्र मीन के नयन भेद दूँ, उसे कहोगे कमतर ?
चट्टानों को चीर अगम, दुर्गम पथ में बढ़ती मैं।
हहराती उद्दाम नदी सी, आत्मकथा कहती मैं।
आगत और विगत दोनों को, एक डोर से बाँधू।
सौ यत्नों से सींच सींच कर, वर्तमान को साधूंँ।
अगर ठान लूँ, अंतरिक्ष में, दीर्घ उड़ान भरूँ मैं।
और जानती हूँ, मधु माखन, फूलों सी कोमल मैं।
छिन्न मस्तका दुर्गा चंडी, कालरात्रि मैं ही हूँ।
सकल विश्व को, प्रथम पेय की, शुभ प्रदात्रि में ही हूँ।
अधरों पर स्मित सँवारकर, लज्जा नयन रखूँ मैं।
दीपक की लौ को सँवारती, प्रेममयी नारी मैं।
इंदु पाराशर