वात्सल्य
वात्सल्य
पंडाल में स्वर्गवासी शिखा की बड़ी सी तस्वीर जिस पर गुलाब की माला चढ़ी हुई थी। मोहक तस्वीर उपस्थित लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी ।
उसी वक्त कांजीवरम की लाल साड़ी ,माँग में खुले हाथ से भरा हुआ सिंदूर, भाल पर दमकती गोल बिंदिया, काँच की मरून रंग की चूड़ियों से भरी कलाई ,चिरपरिचित मुस्कान के साथ आकृति ने पंडाल में प्रवेश किया । कुछ लोगों ने लंबी साँसें भरी ! कुछ आपस में कानाफूसी भी करते नज़र आए । हाथों में खाने की प्लेट थामे महिलाएँ उसे ही निहारे जा रही थीं । उसे देख ऐसा लग रहा था मानो आज चाँद ज़मीन पर उतर आया हो ।
हौले-हौले कदम बढ़ाती हुई आकृति मंच की ओर बढ़े जा रही थी । एकाएक उसके कदम रुक गए !एक ओर खड़ी अपनी होने वाली सास की ओर मुड़ चली ।
” लाइए मम्मी ऋषि ( मुन्ना ) को अब मुझे दे दीजिए । काफी देर से आपके पास रहा यह अब आप आराम से बैठ जाइए ।
स्टेज़ पर दो खाली सजी कुर्सियां रखी थीं। आकृति मुन्ने को अपनी गोद में लेकर, नज़ाकत के साथ एक कुर्सी पर बैठ गयी । उसकी लम्बी नागिन सी चोटी में मोगरे महक रहे थे उनकी हर दिल अज़ीज़ खुशबू कोना-कोना महका रही थी।आकृति के सलोने मुख पर बड़ी वृत्ताकार नथनी देख लग रहा ,दो चाँद आज एक साथ मिल रहे हों !
अब तक दूसरी कुरसी भी भर गई । वर-वधु दोनों शिव पार्वती से कम नहीं लग रहे थे ।
वरमाला का कार्यक्रम शुरू होने की तैयारियां होने लगी
तभी मुन्ने का तीव्र रुदन वातावरण में गूंजने लगा ।
आकृति बच्चे को खड़े होकर चुप कराने लगी ।
“अरे सुनो आकृति बच्चे को दादी को दे दो ”
रिश्तेदारों की भीड़ से एक आवाज़ आई ।
“चाची जी एक साल से दादी की छत्र छत्र-छाया में ही पल रहा है मुन्ना! अब अपनी नयी माँ से भी तो घुलने-मिलने दीजिए ज़रा । मुस्कुराते हुए आकृति ने मुन्ने को अंक में छुपा लिया ।
सबने देखा -मुन्ने की दादी और पिता की आँखों में सन्तुष्टि के भाव तैरने लगे थे ।
डिम्पल गौड़