वह लड़की
कुछ समय पहले घर में “फिश एक्वेरियम” आया था। उसमें सात मछलियां डाली थीं। उनमें एक सबसे सुन्दर मछली को हमने “परी मछली” नाम दिया था। बदकिस्मती से वही परी मछली दूसरे दिन रात ग्यारह बजे एकाएक छटपटाने लगी। सबने कहा यह मरेगी। मैं भगवान् से उसके जीवन के लिए प्रार्थना करने लगी। उस चक्कर में मुझे रात को नींद नहीं आ रही थी। रात को वह तड़पती रही और लगभग रात दो बजे उस ने अंतिम श्वास ली। उसको छटपटाहट व मृत्यु देख मेरे जेहन में गीतू की याद ताज़ा हो आई।
बात 17 मार्च सन् 1999 की थी।
10-11 साल की गोरी चिट्टी थी वह। अच्छी तंदुरुस्त और बड़ी खूबसूरत सी। बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बे बाल। परन्तु अस्पताल के जनरल वार्ड में बैड पर पड़ी दर्द से बुरी तरह छटपटा रही थी आसपास से उसकी माँ, दादी, बुआ व ताई जी उसके पैरों व हाथों को कस कर दबाए बैठी थीं ताकि वह बैड से नीचे न गिर जाए।
मैं पास के बैड पर अपने साढ़े चार वर्षीय बेटे के साथ थी, जिसे स्कूल बस के एक भयानक एक्सीडेंट के कारण एडमिट किया गया था, जिसमें मेरे बेटे की पाँच पसलियों में गंभीर फ्रैक्चर हुआ था। ईश्वर की कृपा से उसकी जान बच गई थी। मैं उसकी देखरेख में तैनात थी। बच्चा तो अबोध था व पूरी तरह से चेतना में नहीं था किन्तु मेरा ध्यान उस प्यारी-सी बच्ची पर से नहीं हट रहा था। राजपूत परिवार था। उसकी माँ घूंघट में चुपके-चुपके आँसू बहा रही थी। रोने की सख्त मनाही थी कारण पता चला कि “लड़की के लिए क्या रोना ?”
वह बेहोश थी। हल्के रंग के कपड़े पर गहरे नीले फूलों वाला फ्राक पहने थी वह। पता चला कि चार दिन पहले अपने घर के भैंसों के बाड़े में रोजाना की तरह भैंसों को चारा खिला रही थी। यह उसकी रोज़ की दिनचर्या थी। भैंसे भी गीतू से हिलीमिली थीं जिसके कारण घर वाले भी निश्चिंत रहते थे और उस दिन भी थे।
एकाएक एक भैंस बन्धन कुछ ढीला होने के कारण खूंटा तोड़ कर भागी और बदकिस्मती से उसके खूंटे की कड़ी बच्ची गीतू के हाथ में पहने चाँदी के कड़े में अटक गयी और तेज गति से भागती भैंस के साथ साथ बच्ची घिसटती चली गयी। बच्ची की चीख-पुकार सुनकर घर व बाहर के लोग इकट्ठा हो गए परन्तु लोगों के पीछे दौड़ने पर भी वह का ऊबू में न आई और कई कि. मी. तक दौड़ती चली गई तथा जंगल व कंटीली झाडियों में वह अपने साथ बच्ची को घसीट ले गयी। बच्ची बुरी तरह लहूलुहान व बेजान हो चुकी थी। जैसे-तैसे भैंस काबू में आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
तब से लेकर हमारे अस्पताल में आने तक पांच दिन बीत गए थे । बच्ची एक पल भी होश में नहीं आ रही थी। उसकी माँ का दर्द व घुट-घुट कर रोना मुझ से देखा न जा रहा था। बच्ची इतनी प्यारी रेशम-सा शरीर, स्वर्ण-सा रंग और इतना सुन्दर-सा मुख। वह जरा-सा भी हिलती तो माँ का चेहरे पर घूंघट की ओट में से आशा की किरण जगमगाती किन्तु दूसरे ही पल वह दर्द से बल्लियों उछल कर छटपटाने लगती और माँ की आँखें भर आतीं। देखते ही देखते शनैःशनैःउसका छटपटाना कम होता गया और उसके साथ-साथ माँ का चेहरा मुरझाने लगा।
जान खत्म होती जा रही थी लेकिन बिस्तर पर पड़ी उस की सुन्दर व हृष्ट-पुष्ट सी काया देख मन मस्तिष्क यह मानने को तैयार नहीं था कि खेल खत्म होने को है वह प्यारी सजीव सी बच्ची।
माँ अभी भी एकटक उसका मुखड़ा देखकर सिर सहला रही थी इस उम्मीद में कि शायद ईश्वर कोई चमत्कार दिखा दे और बच्ची माँ बोल उठे। परन्तु नामुमकिन था यह सब अब।
आक्सीजन मास्क लगा था कई नलियों व ड्रिप चल रही थी कि एकाएक बच्ची ने एक हिचकी ली और इहलीला समाप्त।
अब गीतू की माँ का दुख बस में न रहा और डाक्टर द्वारा मृत्यु घोषित होते ही वह बच्ची के ऊपर गिर पड़ी और रोने लगी। तुरन्त ही वहाँ खड़े पुरुषों ने वहाँ बैठी औरतों को निर्देशित किया और उन्होंने तुरंत प्रभाव से उसे न रोने की सख्त हिदायत देकर अपने हाथों से उसका मुंह दबोच कर उस बिलकुल चुप रहने की घुड़की दी।
रात के लगभग दो बजे थे उस समय और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ से उस बालिका को देखती रही। उसके घर का कोई भी सदस्य आंसू नहीं बहा रहा था किन्तु मैं रो रही थी।
कोफ्त हो रही थी लोगों की इस विद्रूप मानसिकता पर। मन में
सोचा-“यदि वंश चलाने वालियाँ ही नहीं रहेंगी तो कहाँ से बढ़ेगा तुम्हारा वंश वृक्ष। ”
उस प्यारी सुन्दर-सी गुड़िया की खूबसूरत छवि आज भी मेरे मस्तिष्क पटल पर यथावत मौजूद है। मैं उसे कभी विस्मृत नहीं कर पाऊंगी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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