वह खत
वह खत (लघुकथा)
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मन बड़ा उदास था कई दिनों के निर्थक भाग दौड़ का आज समापन जो हुआ था वह भी घोर अनिश्चितता के साथ। आज मैने निश्चय कर लिया था अब बस …… कल ही घर वापस चला जाऊंगा , नौकरी ना मिली ना सही ……अब घर चल कर वहीं कोई रोजी रोजगार कर लूंगा किन्तु अब फिर कभी …..भूल कर भी….. किसी बड़े शहर का रुख नहीं करूँगा।
लेकिन कुछ ही पल बाद मन के किसी कोने से निकलने अनिश्चितता के बादलों ने आश रूपी उस सूर्य को अपने आगोश में ले लिया…. कि घर में कौन सा खजाना गड़ा हुआ है जो वहाँ पहुचते ही खोद कर निकाल लूंगा और उससे अपने रोजगार का श्री गणेश कर लूंगा।
इन्हीं सोचों के कारण मन अत्यधिक उद्विग्न व दुखी था।समझ नहीं पा रहा था करूँ तो क्या करूँ …? ……इस व्यथा से मन को बहलाने के लिए मैने वह ब्रिफकेस खोल लिया जिसमें अपना फाईल दो चार कपड़े लेकर मैं दिल्ली आया था ।
उस फाईल में मेरे सर्टिफिकेट के आलावा जो सबसे बहुमूल्य समान रखे हुए थे वह वे तमाम खत थे जिन्हें मैने कालेज टाईम से लेकर शादी के बाद तक किसी को लिखा था पर पोस्ट नहीं कर पाया था …..या जो खत किसी और ने मुझे भेजा था
……उन खतों को मन बहलाने के लिए बारी बारी से खोलने व पढऩे लगा….पापा एवं माँ के हाथो रचित खत …..मेरे जीवन के प्हले प्यार का पहला खत ….किन्तु फिर भी मन को चैन न मिला …..किन्तु तभी वह खत मेरे हाथ लगा जिसने मेरे जीवन को एक नया आधार प्रदान किया और मैं खुद को दिल्ली जैसे शहर में स्थापित करने में कामयाब हो सका।
वह खत मेरे मित्र चन्द्र शेखर ने अपने उन संघर्षकाल में मुझे लिखा था।
उस खत के कुछ अंश……
“मित्र हार और जीत के बीच मामुली सा अन्तर होता है जो आपके सोच में समाहित होता है, मन के सोचे हार है मन के सोचे जीत …..मित्र मैनें बहुत कठिन संघर्ष किया एक अनजान शहर में बिना थके , बिना डरे और बिना हारे, परिणाम आज खुद को बेहतर और अति व्यस्त हालत में पा रहा हूँ”……!!!
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण….. बिहार
८४५४५५