रिश्तों की दरार
कच्ची मिट्टी गूँधकर
तूने आकार दिया,
आग पर तपा तपा कर
फिर उसे शीतल किया,
तेरे हाथ मे क्या जादू है
तेरा घड़ा ना टूटता है ,
ना फूटता है, ना रिसता है
शीतलता भर देता है,अन्तर्मन मे ।
मैंने भी गढा था एक रिश्ता बड़े जतन से
उसमे सूराख हो गया
परत दर परत झड़ता है,
रिसता है , सिसकता है।
लाख पूरने की कोशिश करूँ
लेकिन छेंटी जाती नही ,
रिश्तों मे पड़ी दरार
कभी पूर पाती नहीं।
नम्रता सरन “सोना”