वसन्त
महकने लगे दिग-दिगन्त, शायद वसन्त आ गया
भाव उठे मन में अनन्त, शायद वसन्त आ गया
चुपके से बादल का घूंघट उठा कर
अधखिली कली जैसी चाँदनी को पा कर
छेड़ रहा चाँद शीलवन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे………
मानस के द्वार खुले मादक मधु-चोट से
कविता के आंगन में छन्दों की ओट से
झाँकते निराला और पन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे………
हल्दी और चन्दन के रंग खूब साजे
शहनाई गूँजी, वेदी पर विराजे
घर-घर गौरी व एकदन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे………
सौंपा है विधि ने किस भाग्यवान लेखे
बार-बार कनखी से रूप-कलश देखे
हार रहा मन का यह सन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे……….
सरसों के फूलों की चादर बिछाये
धरती ने गगन संग सपने सजाये
विरह-दुःख ‘असीम’ हुए अन्त, शायद वसन्त आ गया
महकने लगे……….
©️ शैलेन्द्र ‘असीम’