वरद् हस्त
कांगड़ा के हवाई अड्डे से
उस दिन हवा में हो गया मैं
देखते ही देखते
एक सुंदर सी दुनिया में खो
गया मैं
घर खेत खलियान,धरती पर
बस्ती की सारी पहचान
धीरे धीरे खो रही थी
अब उर्द्वमुखी
हमारी उड़ान हो रही थी
धरती पर सारी सीमाएं
समाप्त हो रहीं थीं
सभी एक दूसरे में समा कर
एक हो रहीं थीं ,
अब तक धरा पर
बादलों के गवक्षों से
अंबर निहारता था
अब बादलों के वातायन से
धरती निहारने में प्रयासरत
आसमान में
निराधार उड़ रहा था
बहुत दूर तक
चांदी की चादर
बिछी थी
या कहूं बर्फ की चादर
परंतु यह सच था
कि
मैं होने के सारे आभास मिट रहे थे
सारी पहचान समाप्त हो जाती हैं
जब हम उठ जाते हैं ऊपर
केवल एक आभास
शून्य या पूर्ण
पूर्ण कहना उचित होगा
दंभ से न नाता होगा
इस
निराधार हवाई यात्रा से
एक बात जान गया हूं
जब तुम्हारे नीचे कोई ठोस आधार
नहीं होता है
तो एक शाश्वत सत्य का वरद हस्त
मात्र
तुम्हारे साथ होता है
तुम्हारे साथ होता है