{{ ◆ वक्त ◆ }}
ये वक्त भी कितना अजीब होता है, कितने ही रंग छुपे होते है एहसास के | ज़िंदगी के सारे पन्नों पर वक्त ही तो अपना अच्छा बुरा रंग छोड़ता है | अच्छा वक्त तितली के पंख की तरह खूबसूरत होता है , जिसे हम छूते है तो उन पखों के सारे खूबसूरत रंग हमारी ज़िंदगी में अब्र की तरह छा जाते है, मगर जब बुरा वक्त आता है तो है तो ऐसा महसूस होता है के मानो वो …….किसी रेंगते हुए कीड़े की तरह धीरे- धीरे चलता है और आपके मस्तिष्क और मन पर पड़ी सुहानी यादों को आहिस्ते – आहिस्ते खाने लगता है | हम उस दौरान कितनी भी कोशिश कर ले , अपना ध्यान दूसरी और ले जाए मगर वो कीड़ा रूपी वक्त हमे अंदर ही अंदर कहा ही जाता है|
कहते है इंसान को वक्त से पहले कुछ नहीं मिलता है, जो वक्त की कद्र….. वक्त भी उसकी कद्र नहीं करता है, बाद में निराश ही हाँथ लगती है | जब वो वक्त निकाल जाता है तो ज़हन में सिर्फ और सिर्फ रह जाता है दुख और पछतावा | वक्त के हाथों शायद कुछ नहीं नमूमकिनात नहीं होता है न इत्तेफाक होता है| हर इंसान ज़िंदगी की जद्दोजहद से कुछ फरिक वक्त ही खोजता है , बाकी सर वक्त तो बस मेहनत , मेहनत और मेहनत |
लेकिन ये भी सोचने वाली बात है क्या वक्त हमे चलती है या हम वक्त को अपने इशारे पे नचाते है | फ़र्क है दोनों बात में……. सच तो ये है के जब सब हमारे मन के अनुसार चल रहा होता है इंसान सोचता है वकअत तो मेरी उगलियों पर नाचता है, जैसे चाहे वैसे इसे मोड सकता हूँ , लेकिन जब बुरे वक्त से गुजरते है तो दोष उसी वक्त को देते है| ये वक्त ही होता है जो कभी खुशियों आडंबर लगा देता है कभी ज़िंदगी से जबरदस्ती सारे सुख छिन लेता है |
इंसान की पहचान भी तो वक्त से ही होती है, जैसे सोने की पहचान आग से होती है| आग की लपटों में ही सोना और चमकता है , वक्त हमारे व्यक्तित्व को कितना निखरता है ये तो कठिनाइयों से , वेदनाओ से, संघर्ष से लड़ के जब हम विजयी होते है तभी मालूम होता है वक्त की अहमियत | इंसान, ज़िंदगी, कायनात सब वक्त के हाथों की कठपुतलिया ही तो है, उसके आगे क्या राजा क्या रंक | वक्त के आगे ज़िंदगी हर जाती है, चेहरे की मुस्कन हार जाती है, प्यार और रिस्ता हार जाता है| वक्त आपके यकीन को को और मजबूत करता है , कदमों को और ताकत देता है | दिल और हौसले को ऊँचाई का आसमान भी देता है या गर्त में दफन भी कर देता है|
वक्त ही हमे अपने और आकर्षण से बहु रु-ब-रु भी करवाती है| कुछ वक्त ऐसे भी आते है जब स्पर्स की अनुभूति भी भली लगती है | तब हम ये नहीं सोचते है के उस वक्त हम प्रश्न करे या याचना, सहानुभूति दे या सहनुभूति दे, नए रिस्ते की शुरुवात करे या पुराने रिस्तों को समाप्त करे | किसी का बाहें फैला के स्वागत करे या विदा करे | एक पल ऐसा भी आता है जब इंसान वक्त से विद्रोह करने लगता है, एक खिन्न सी हो जाती है अपने वर्तमान या अतीत के गुजरे वक्त से | उसके अंतर्मन में यही कशमकश चलता रहता है जो वक्त था वो अच्छा था या बुरा, जो ख्वाहिशे बिखरी वो अपनी थी या जो हासिल किया वो अपना है |
एक इंसान अपनी ज़िंदगी में चाहे कुछ भी कर ले ….. काम, मेहनत, प्यार हर जगह हर रिस्ता सिर्फ वक्त ही तो माँगता है | जो अपने मेहनत और रिस्तों को वक्त देता हैं वही तो अपनी हथेलियों में ढेरों खुशिया , तजुर्बा और प्यार की दौलत लिए होता है, और जिनके पास ये सारी चीजे है उसे वक्त का गुलाम नहीं होना पड़ता है, बल्कि वक्त उनके अनुसार चलता है