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16 May 2023 · 1 min read

वंदनीय

जेठ की दोपहरी से बेखबर
और हर मौसम से अनजान
वहः जर्जर वृद्धा दिख ही जाती थी

एक जलती ज्योति सी मूर्तिमान श्रद्धा
पोपला मुँह झुर्रीदार चहरे के साथ
विवाई फटे पैर से चलती
आशीष लुटाती
मंदिर की सीढ़ियों पर
रेलवे स्टेशन पर ,
वन्दनीय श्रद्धा सी , अपनों से अलग
जग की ममता , कांपती चलती थी
किसी न किसी की तो माँ थी
समाजवाद के चेहरे पर जरूर
बहुत जोर का तमाचा थी
दम्भी सियासत को आइना दिखाती ,
मातृ दिवस की , कपटी षड्यंत्र की ,

पोल खोलती
वन्दनीय मूर्तिमान ,
किसी न किसी तो माँ थी

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