वंदनीय
जेठ की दोपहरी से बेखबर
और हर मौसम से अनजान
वहः जर्जर वृद्धा दिख ही जाती थी
एक जलती ज्योति सी मूर्तिमान श्रद्धा
पोपला मुँह झुर्रीदार चहरे के साथ
विवाई फटे पैर से चलती
आशीष लुटाती
मंदिर की सीढ़ियों पर
रेलवे स्टेशन पर ,
वन्दनीय श्रद्धा सी , अपनों से अलग
जग की ममता , कांपती चलती थी
किसी न किसी की तो माँ थी
समाजवाद के चेहरे पर जरूर
बहुत जोर का तमाचा थी
दम्भी सियासत को आइना दिखाती ,
मातृ दिवस की , कपटी षड्यंत्र की ,
पोल खोलती
वन्दनीय मूर्तिमान ,
किसी न किसी तो माँ थी