लफ़्ज़ों से भरी पर खामोश
सूर्य ढलने को था। बूढ़ी अम्मा बागीचे में बरगद के नीचे बैंच पर बैठी थी। ऐसा प्रतीत होता था किसी की प्रतीक्षा कर रही हो। ‘अम्मा किसी का इन्तज़ार कर रही हो क्या?’ एक नवयुवती ने पूछा। ‘…..’ अम्मा खामोशी से मुस्कुरा दी पर उसके चेहरे पर पड़ी लकीरों में लिखी पीड़ा के शब्द उभरने लगे थे। ‘घर कब जाओगी, मैं छोड़ आती हूं’ नवयुवती ने फिर कहा। ‘बेटी, तुम क्या मुझे छोड़ आओगी, अपनों ही मुझे कब का छोड़ दिया है, अब छोड़ने जैसी बात कहां’ अम्मा ने कहा ‘पर बेटी, तुम घर जाओ, तुम्हारे मां-बाप इन्तज़ार करते होंगे, तुम्हारा समय से जाना ठीक होगा।’
नवयुवती को इस तरह से छोड़ कर जाना ठीक नहीं लगा। उसने फिर कहा ‘ठीक है, मैं चली जाऊँगी, पर तुम्हें साथ चलना होगा, यही समझ लो मैं अकेली न जाकर तुम्हारे साथ चली जाऊँगी, अब तो चलोगी न।’ ‘अच्छा बेटी, तेरा साथ देने के लिए मैं चल पड़ती हूं, चलो’ कहते हुए अम्मा उस नवयुवती के साथ धीरे धीरे चल पड़ी। ‘तुम्हारा घर किधर है, बेटी?’ अम्मा ने सवाल किया। ‘बस यहीं है, वो देखो जो सामने गुलाबी सा मकान नज़र आ रहा है, वह मेरा घर है, पर तुम्हारा घर किस तरफ है?’ नवयुवती ने सवाल किया। ‘बेटी, मेरा घर तो अब यह पूरी दुनिया है, मैं जहां भी रुक कर आराम कर लूँ वह मेरा घर है’ अम्मा ने जवाब दिया। ‘तो मैं तुम्हें कहां छोडूं, कुछ तो बताओ?’ नवयुवती बेचैन हो रही थी। ‘बेटी, तुम्हारा घर आ जाये तो मुझे छोड़ देना’ अम्मा ने कहा। ‘क्या मतलब?’ नवयुवती हैरान थी।
‘हां बेटी, जब से परिवार की जिम्मेदारी संभाली थी, तब से यही करती आ रही हूं, हरेक को उसकी मंज़िल तक पहुँचाती गई और हर कोई मुझे छोड़ता गया’ अम्मा दार्शनिक अंदाज़ में बातें कर रही थी। ‘अम्मा, इस समय तो मेरी मंजिल मेरा घर ही है, जो सामने ही है, पर मैं आपको छोड़ नहीं सकती, बेशक अब तक मंज़िल आते ही आपको छोड़ दिया जाता रहा हो, अब तो मैं आपको आपके घर तक छोड़ कर ही आऊँगी’ नवयुवती ने कहा। ‘बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, पर जब से मेरे जीवन की दूसरी पारी शुरू हुई है, मैं यही तो करती आ रही हूं, तो मुझे क्या घबराना?’ अम्मा ने कहा। ‘दूसरी पारी! क्या मतलब’ नवयुवती ने पूछा।
‘बेटी! लड़की के जीवन में अमूमन दो पारियां होती हैं, एक अपने पिता के घर और दूसरी अपने पति के घर। पहली पारी में मां-बाप का लाड़-प्यार मिलता है, मन की अधिकतर इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, मां के झिड़की भरे प्यार के बीच दूसरी पारी की तैयारियां की जा रही होती हैं, खाना बनाना सिखाया जाता है, तारीफ की जाती है, इनाम दिये जाते हैं, गलत बनने पर प्रेम से समझाया जाता है, जब कभी यह कहा जाता है कि आज तुम्हारे खाने की परीक्षा है, तो भी किसी प्रकार का तनाव नहीं होता, पता होता है कि मां संभाल लेंगी और कोई ताने नहीं सुनने पड़ेंगे। पर बेटी, दूसरी पारी जिम्मेदारियों से भरी होती है, कितनी प्रश्नवाचक निगाहें आपकी हर हरकत को देखती हैं, वक्त बेवक्त नसीहतों के अम्बार लगा दिये जाते हैं, ऐसा लगता है जैसे इन्तज़ार हो रहा है कि दूसरी पारी खेलने आई इस खिलाड़िन को बाऊँसर फेंको और मज़े लो, उसे अपने पैर जमाने ही न दो, पर हां बहुत कुछ निर्भर करता है आपके साथी खिलाड़ी पर, वह कैसी प्रतिक्रिया देता है, कितना और कैसा साथ निभाता है, कितनी दूर चलता है। बेटी, कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है कि जैसे हम दोनों नदी के दो किनारे हो गये हैं जिनकी मजबूरी साथ-साथ चलना है क्योंकि मंजिल एक है। फिर दूसरी पारी में आप अपील भी नहीं कर पाते। कुछ सोच कर रह जाते हैं। मां-बाप को भी ‘खुश हूं’ कहना पड़ता है चाहे इसमें पूरी ताकत क्यों न खर्च हो जाये पर मां तो मां होती है वह फट से पहचान लेती है। उससे कुछ छुपा ही नहीं सकते। वह खुशी के पीछे के आंसुओं को पहचान लेती है आखिर उसके जिगर का टुकड़ा ही तो होती है बेटी। वह समय देखकर बेटी का हौसला बढ़ाती है, उसे जीवन के अनुभवों की मलहम लगाती है’ कहते कहते अम्मा का गला भर आया था।
‘अम्मा, जब आप अभी तक सारे फैसले खुद ही कर लेती हैं तो आज मैं आपको अपने घर चलने का निमंत्रण देती हूं, रात हमारे साथ रहिए, सुबह होते ही कोई आपको आपके घर छोड़ आएगा’ नवयुवती ने कहा। ‘ठीक है बेटी, इतने स्नेह से कहती हो तो इनकार नहीं कर सकूंगी’ कहती हुई अम्मा उस नवयुवती के घर चली गई। उस नवयुवती ने अम्मा की पूरी आवभगत की, खाना परोसा और उसके छोटे से परिवार ने अम्मा से अनेक बातें कीं। सुबह हुई तो अम्मा बोली ‘बेटी, मुझे बागीचे तक ले चलो, मैं सुबह वहीं जाया करती हूं।’ ‘ठीक है, अम्मा, जब तक आप वहां पेड़ के नीचे आराम करना चाहें करें, बाद में मैं खाना यहीं ले आऊँगी, आपके साथ आनन्द लूंगी और आपको आपके घर तक ले जाऊँगी’ नवयुवती ने कहा। अम्मा मुस्कुरा दीं और नवयुवती चली गई।
दोपहर को नवयुवती खाना लेकर आई और दोनों ने साथ खाना खाया। ‘अब चलो अम्मा, मैं आपको आपके घर छोड़ दूं’ नवयुवती ने कहा। ‘बेटी, तुम अभी तक समझी नहीं, मैंने कल भी तुम्हें बताया था कि अब ये दुनिया ही मेरा घर है। ये हरे-भरे पेड़, चहचहाते गीत गाते पंछी’ कहते हुए अम्मा कुछ खोई सी लगी। ‘आप तो पढ़ी लिखी मालूम होती हैं’ नवयुवती ने संदेह व्यक्त किया। ‘हां बेटी, मैं बहुत पढ़ी लिखी हूं, ज़िन्दगी की कई किताबें पढ़ चुकी हूं।’ अम्मा ने गहरी सांस लेते हुए कहा। ‘तो क्या आपका कोई घर नहीं है, आप सारा दिन यहीं गुजारती हैं?’ नवयुवती ने पूछा। ‘घर! घर तो मेरा था छोटा-सा, पर अब बहुत बड़ा है, देखो कितना बड़ा है, जहां तुम मेरे साथ हो यही मेरा घर है, देखो कितने बच्चे खेल रहे हैं, कितने लोग आ जा रहे हैं, पर….’ कहते कहते अम्मा चुप हो गईं।
‘पर क्या!’ नवयुवती बोली। ‘पर जो बच्चे खेल रहे हैं, जो लोग आ जा रहे हैं, कब आ रहे हैं, कब जा रहे हैं, उन्हें किसी से कोई मतलब नहीं, मेरे परिवार वाले भी कुछ ऐसे ही हो गए थे। घर में कोई आए, कोई जाए, मुझे बताया नहीं जाता था। पूछने पर जवाब मिलता था ‘आपको जानकर क्या करना है, आपको किसी चीज की जरूरत है तो खुद ले लेना या नौकरानी से मंगवा लेना ….’ कहते हुए अम्मा फिर चुप हो गई। ‘आप फिर चुप हो गई हैं’ नवयुवती ने स्नेह से कहा। ‘हां बेटी, मुझे सब कुछ मिल जाता था पर एक चीज मुझे नहीं मिलती थी और मैं उसे मांगने से डरती भी थी’ अम्मा फिर कहीं खो गईं।
‘ऐसी क्या चीज थी जो आपको चाहिए भी होती थी और आप मांगने से डरती भी थीं?’ नवयुवती ने पूछा। ‘बेटी, मैं चाहती थी कि कोई पल दो पल मुझसे बात करे’ अम्मा बोलीं। ‘क्या!’ नवयुवती भावनात्मक हो गई थी। ‘हां बेटी, जीवन के अन्तिम अध्याय का यही सबसे बड़ा सत्य है’ अम्मा बोलीं। ‘तो आप अपना दुःख दर्द किससे बांटती हो?’ नवयुवती ने कहा। ‘दुःख दर्द! बेटी मैंने ज़िन्दगी देखी है, रिश्तों की अमीरी देखी है तो रिश्तों की गरीबी भी देखी है, गरीबी इतनी देखी कि मैं रिश्तों की बचत करने लगी थी और अब तो बचत करने की इतनी आदत हो गई है कि मैं अपना दुःख दर्द भी अब कम ही बांटती हूं, कंजूस हो गई हूं। इस उम्र में मेरा सहारा बने हुए ये दुःख दर्द भी बांट दिये तो मैं कंगाल हो जाऊँगी, जीने का मकसद खो बैठूंगी, जब तक जीवन है कुछ तो सहारा चाहिए’ अम्मा की आंखें डबडबा आई थीं।
नवयुवती ने कहा, ‘अम्मा, मैं आपसे बस इतना ही कहना चाहती हूं कि आपको अपना जीवन जीने का पूरा अधिकार है, आप जैसे मर्जी अपना जीवन जिएं, पर मेरा घर इतना छोटा नहीं है कि आपके आने से तंगी का माहौल हो जाये। रात हो, आंधी हो, बारिश हो, आप हमारे साथ रहें’ नवयुवती ने आग्रह किया। ‘बेटी, तुम खुश रहो, पर मुझसे मेरी सम्पदा न छीेनो। जीवन के दिन रात, आंधी-तूफान, बारिश, ये सभी मेरी सम्पदा हैं, देखो तो मैं कितनी अमीर हूं’ कहते हुए अम्मा जोरों से हंस पड़ीं। नवयुवती ‘मैं शाम को आऊँगी, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।’ नवयुवती ने उसके परिवार के बारे में जानने की कोशिश की थी पर अम्मा ने कुछ नहीं बताया। जाते-जाते नवयुवती ने खुद से जैसे कहा हो ‘किताबों की तरह है अम्मा, लफ़्ज़ों से भरी पर खामोश।’