लौट बिना बारात गई
लौट बिना बारात गई
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बीत हसीं वो रात गई,
लौट बिना बारात गईं।
हाथ मिरे खाली ही रहे।
यार फिसल सौगात गई।
आँख खुली बीमार नही,
खूब बरस बरसात गई।
बात बनी थी टूट चुकी,
दूर बहुत ही ख्यात गई।
साथ मिला जो छूट गया,
पास खड़ी साक्षात गई।
मांग लिया बेबाक उसे,
जीत नई शुरुआत गई।
रंज न मनसीरत से सहे,
रीझ करीबी प्रभात गई।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)