लोक_गीत (परदेशी के पीड़ा)
#लोक_गीत (परदेश के पीड़ा)
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बाँधि पीढि पर बैग ऊ बड़हन, लेई मनवाँ अरमान।
आजु निकलनी दिल्ली भइया, छोड़ि खेत-खलिहान।
मिली नोकरी सुनर- सुघर, आ पइसो भरपूर।
येहि आस में घरवाँ छोड़नी, गोत-नात से दूर।-२
येह नोकरी के आस में दादा-२ बिकल बखारी धान।
आजु निकलनी दिल्ली भइया, छोड़ि खेत-खलिहान।।
कर्जा -पइचा नगद-उधारी, भइल कइगो खेल।
तब जाके हम बइठल बानी, अब दिल्ली के रेल।-२
कइसन दिन दिखवल बिधना-२ सुतल जे चदरा तान।
आजु निकलनी दिल्ली भइया, छोड़ि खेत-खलिहान।।
आजु कमाये खातिर ढेबुआ, निकल रहल बा तेल।
घरवाँ के अँगनाई छुटल, आ अपनन से मेल।-२
छुटि गइल बा गाँव-नगर अब-२ मिटल जान-पहिचान।
आजु निकलनी दिल्ली भइया, छोड़ि खेत-खलिहान।।
महानगर में आके खोजनी, गाँव नगर जस नेह।
माई -बाबू के जइसन इहवाँ, मिलल न हमरा मेह।-२
सचिन बीच अपनन के देखि -२, बन गइलन मेहमान।
आजु निकलनी दिल्ली भइया, छोड़ि खेत-खलिहान।।
पइसा-रुपया खूब कमइनी, मिमल न घर जस गेह।
महानगर में सुविधा बा पर, नइखे ओइसन नेह।-२
सुख-सुविधा के ताक में बाबू-२ निकल रोज पिसान।
आजु निकलनी दिल्ली भइया, छोड़ि खेत-खलिहान।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’