लोक रीति- रिवाज
विषय :- लोक रीति-रिवाज
लोकभाषा/बोली :- खड़ी भोजपुरी
#भूमिका :- उपर्युक्त विषयांतर्गत रचित अपनी में मैंने भोजपुरी भाषी नेपाल – बिहार सीमा पर अवस्थित तराई क्षेत्र के रीति-रिवाजों का कुछ हद तक वर्णन करने का प्रयास किया है।
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#रचना
मेघ दिखे करिया नभ में, अरु दादुर आपन गीत सुनावे।
भाद्र सखी सबही सधवा, उपवास रहे अरु तीज मनावे।
आवत मास कुआर सखी, सबही मिलि अम्बहि मातु मनावे।
कार्तिक में छठ घाट सजे, कनिया वर ढूँढ पिता सुख पावे।।
गाड़ दिये मड़वा अँगना, अब लै हरदी कर ठारहुँ भ्राता।
गोड़ धरे थरिया पहुना, जल से पग धोय रहे पितु माता।
पाहुन को सतकार करे, कनिया कर दान बने तब दाता।
देत दमाद को मान इहाँ, नर हो नहि हो मनु भाग्य विधाता।।
पौष व माघ रहे घरमास, शुभाशुभ काम क बात न आवे।
फागुन मास बहार भरे, घर ही घर मंगल गीत सुनावे।
सावन मास सुनो समधी, अपने सुत के ससुरालहि जावे।
हर्ष भरे उर से समधीन सुआगत मे़ गरियावन धावे।।
डाल बहू मथवा अँचरा, निज सास क मान दिये सुख पाये।
जेठ रहे अँगना जब ले, बहुऐ उनका समना नहि आये।
मान पिता निज सासुर को, सर घूँघट राख हि माथ झुकाये।
रीति रिवाज इहे अपना, मन मंदिर मे़ सब ही बइठाये।।
( प.संजीव शुक्ल ‘सचिन’ )
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#शब्दार्थ करिया- काला, सधवा- सुहागन, कनिया- कन्या, गाड़ दिए- हला देना, ठारहुँ – खड़ा रहना, थरिया- थाल, गोड़- पग, पैर, पाहुन, पहुना- दमाद या बहनोई,
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पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार