#लोकराज की लुटती लाज
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[ यह कविता छह जनवरी २०२१ को लिखी गई थी। आज कृषिसुधार(?) कानूनों की वापसी पर पुनर्प्रसारित है। ]
१९-११-२०२१
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★ #लोकराज की लुटती लाज ★
भीड़ जब नहीं टली
तर्क की नहीं चली
शल्य हठी गली गली
दुर्युक्तियों के खेल में
तमस उमस के मेल में
सच हुआ नहीं बली
भारती गई छली
भीड़ जब नहीं टली . . .
कसमसा रहा समाज
पीर भरी देहछाज
कोढ़ में छिड़ी है खाज
गलियों में शोर है
कौन किसकी ओर है
मूक बधिर लोकराज
उसीकी लुट रही है लाज
कसमसा रहा समाज . . .
बिका हुआ सामान वहाँ
मुंड मुंड प्रधान वहाँ
नि:शुल्क सब दुकान वहाँ
छत्र चंवर जो हीन हुए
इक कौड़ी के तीन हुए
बीत चुके राजान वहाँ
और कुछ किसान वहाँ
बिका हुआ सामान वहाँ . . .
पथ पथिक नए नए
मीत प्रीत खो गए
अनजाने हो गए
चुभता हिरदे में शूल
छाँव को तरसे बबूल
आँखों को धो गए
तुम जो दिन में सो गए
पथ पथिक नए नए . . .
विजयश्री तुम्हें वरे
भूत हों परे परे
अरि रहें सदा डरे
लौट तो जाओगे तुम
प्रश्न छोड़ जाओगे तुम
शुभ कर्मों से नहीं टरे
कौन हित किसका करे
विजयश्री तुम्हें वरे . . .
आज कहें इक सत्यकथा
तथा प्रजा राजा यथा
बीती बिसरी हुई प्रथा
होंगे हम राजा जिस दिन
लौटाएंगे सब गिन गिन
होगा अपना सूरज अपना माथा
तू न बिका जो मैं न बिका
तू न बिका जो मैं न बिका . . . !
६-१-२०२१
{ इसी विषय पर बारह जुलाई का लेख “#कृषिसुधार(?) #कानून” भी देखें। }
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
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