लोककवि रामचरन गुप्त मनस्वी साहित्यकार +डॉ. अभिनेष शर्मा
स्व. रामचरन गुप्त माटी के कवि थे। अपने आस-पास बिखरे साहित्य को अपने शब्दों का जामा पहनाकर लोकधुन से उसका शृंगार कर जिस तरह से वक्त की इमारतों में सहेजते रहे, शायद वर्तमान में कोई भी उस तरह का साहस नहीं कर पाता है। वर्तमान कविता जो शायद खुद ही तुकान्त और अतुकान्त शीर्षकों में विभक्त होकर कभी ‘गीत’, कभी ‘हिन्दी ग़ज़ल’, कभी ‘नई कविता’ की उपाधि से विभूषित होकर अपनी विवशता पर हैरान है, ऐसे में लोकगीत, लोकधुन और लोकभाषा के सुस्पष्ट सुदृढ़ स्तंभों पर आसीन गुप्तजी का साहित्य, मील का पत्थर बना काव्य-सृजकों के लिये नई राह खोलता है।
प्रतिभा कभी भी एक जगह संकुचित नहीं रह सकती। प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति चाहे ग्रामवासी हो या कतिपय शहरी, वह पुस्तक पढ़कर स्वयं शास्त्री हुआ हो या पाठशालाओं में अध्यापकों की अभिरक्षा में शिक्षित हुआ हो, वह कभी भी गुमनामी के तिमिर में तिरोहित नहीं हो सकता। समय को उसे समझकर उसकी आहट लेनी ही होगी तथा उसको पूर्ण सम्मान देते हुए उसका वास्तविक अधिकार उसे देना ही होगा।
स्व. गुप्तजी की रचनाओं से सुसज्जित ‘जर्जर कश्ती’ के अंक सही मायनों में साहित्य के आंगन में पल्लवित उस पुष्प की सुगन्ध को व्यापक गगन में स्थापित करने का एक बेजोड़ प्रयास रहे हैं। प्रस्तुत अंकों में प्रकाशित रचनाएं गुप्तजी के व्यक्तित्व को पूर्णरूप से चित्रांकित करने में सफल रही हैं। साहित्य की गद्य और पद्य दोनों विधाओं में उनकी मजबूत पकड़ दृष्टिगोचर होती है। सामयिक काल की घटनाओं का निवेश रचनाओं को श्वेत पत्र की तरह महत्वपूर्ण बना देता है।
जो बात हमारे राजनीतिज्ञ कहते हुए डरते हैं, उसे उन्होंने पूर्ण जोश से अपने गीतों का केन्द्र बिन्दु बनाया। उसी का चित्रण निम्नलिखित पंक्तियों में है-
‘लाशों पर हम लाश बिछायें, करि दे खूँ के गारे हैं
आँच न आने दें भारत पै, चले भरे ही आरे हैं।।’’
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भारत की उत्तर सीमा पर, फिर तुमने ललकारा है
दूर हटो ऐ दुष्ट चीनियो ! भारतवर्ष हमारा है।
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ओ मिस्टर अय्यूब आग धधकी है सूखी कंडी में
लहर लहर लहराय तिरंगा अपना रावलपिंडी में ।
यथार्थ का काव्यांकन करने में भी गुप्तजी पीछे नहीं रहे हैं। जीवन के छोटे-छोटे सत्य जो हर कदम पर हमारी सहायता करते हैं या फिर हमारे गतिमान कदमों में बेडि़या डालते हैं, उनका हर कवि की शैली पर व्यापक असर पड़ता है तथा लोककवि होने के कारण गुप्तजी भी उससे अछूते नहीं है-
मैं सखि निर्धन का भयी करै न इज्जत कोय
बुरी नजर से देखतौ हर कोई अब मोय।
श्री गुप्त निम्न पंक्तियों में गरीब नारी-हृदय का सटीक चित्रण है जो उनके काल में ही नहीं, वर्तमान में भी रत्ती-भर भी परिवर्तित नहीं है। तभी तो दुखियारी यह कहने पर विवश है-
कैसौ देश निगोरा, तकै मेरी अंगिया कौ डोरा
मोते कहत तनक से छोरा, चल री कुंजन में।
यदि कवि की लेखनी सीमित परिभाषाओं को ही परिभाषित करती रहे या कवि को किसी एक विधा में संतुलित कर दे तो वह कवि कभी लोककवि नहीं हो सकता और न कभी यह उक्ति की जाती है कि-‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’।
गुप्तजी की साहित्य-मंजूषा में भक्तिगीतों की भरमार है और यही कारण है कि सीधी , सरल और गेय ब्रजभाषा में रचित उनके भक्तिगीत-रसिया उन्हें जनकवि बनाने में सहायक होते हैं। वियोग और संयोग उनके भक्तिगीतों की जान है, तभी तो वह गाते हैं-
‘ओ अंतिम समय मुरारी, तुम रखना याद हमारी।’
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‘मीठी-मीठी प्यारी-प्यारी बाजी रे मुरलिया
सुन मुरली की तान बावरी ब्रज की भयी गुजरिया।’
जिकड़ी भजन, आजादी के गीत, कथा-गीत यहाँ तक कि मौसम के परिवर्तन का स्वागत मल्हार से, हर क्षेत्र में उनकी रचनाएं अपनी छटा बिखेरते हुए मिल जाती हैं-
कारे-कारे बदरा छाये छूआछूत के जी
ऐजी आऔ हिलमिल झूला लेउ डार
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सावन समता कौ आये मेरे देश में जी
एजी रामचरन कौ नाचे मनमोर।
ऐसी पंक्तियों को गुनगुनाते हुए किसका मनमोर नहीं नाच उठेगा?
श्री गुप्त की लघुकथाओं में भी उनके द्वारा किये गये कटाक्ष कापफी सटीक हैं -‘‘ रे मूरख किलो में नौ सौ ग्राम तो हम वैसे ही तोले हैं और क्या कम करें’’।
जर्जर कश्ती के अंकों में उनके पुत्र रमेशराज द्वारा लिखी गयी कविताएं उनकी सुस्थापित जगह के साथ पूरा-पूरा न्याय करती हैं-
‘हम हुए जब-जब भी मरुथल जिंदगी के दौर में
तुमको देखा बनते बादल इसलिए तुम याद हो।’
गुप्तजी द्वारा रचित साहित्य आने वाले समय में अपनी अलग छटा लिये हमेशा-हमेशा याद रखा जायेगा तथा हर नया कवि इस शैली को अपनाने के लिये उत्सुक रहेगा। भले ही शारीरिक रूप से वह वर्तमान में नहीं हैं परन्तु उन जैसा मनस्वी साहित्यकार काल-स्तम्भ पर हर युग में अपनी ध्वजा लिये सजग प्रहरी की भांति साहित्य-सेवा करता मिलेगा।