लेख
विषय संस्कार
विधा :-लेख
आमतौर पर संस्कार से आशय व्यक्ति के आहार ,व्यवहार से लिया जाता है ।उसका रहन सहन ,खानपान भी अक्सर हम सब संस्कार से जोड़ते हैं ।यहाँ सँक्षिप्त में संस्कार को परिभाषित करती हूँ।
संस्कार का अर्थ होता है सृजित करना ।कैसे?कुम्हार मिट्टी के लौंधे से विभिन्न आकार -प्रकार के जरुरत की चीजें बनाता है ।पानी डाल कर बार बार आकार देता है ।सम्हालता है ।यही तो है संस्कार ।बिगड़ी को किस तरह बनाना है यही है संस्कार।
व्यवहार में देखे तो माता पिता के द्वारा दिये संस्कार से देखते हैं ।पर ये भूल जाते हैं पूर्वोपार्जित कर्म भी यहाँ काम करते हैं।किसी सज्जन माता पिता की संतान चोर ,स्मगलर बन जाती है ।क्या माँबाप ये संस्कार देते हैं ?
एक पत्थर को जब तक संस्कार नहीं दिये जाते वह प्रतिमा बन के पूज्य नहीं होती। इसका अर्थ यही है कि पत्थर में प्रतिमा बनने की योग्यता तो थी पर संस्कार का अभाव होने से प्रस्तर रूप ही रह गया।
अब आते हैं उन संस्कारों पर जो लोक व्यवहार में दिखते हैं ।
हमारे व्यवहार ,बोल चाल ,उठना बैठना ,खाने पीने का सलीका ..जीवनयापन का ढंग के साथ हमारी सोच की भी संस्कार में गणना होती है।हम हमारे आसपास के परिवेश से जो गृहण करते हैं तत्पश्चात वही हमारे व्यवहार में झलकता है।
संस्कारित जीवन हमेशा उर्ध्वगामी होता है जिस से आशय है परदुखकातरता,जरुरतमंद की मदद करना ,बड़ों का सम्मान ,आदि ..
संस्कार गर्भ से शुरू हो जाते हैं और मरण तक रहते हैं ।
प्राचीन काल में 56संस्कार होते थे एक व्यक्ति के जीवन में ।तब वह दृढ़ चरित्रवान ,निष्ठावान ,सत्यवान आदि गुणों से परिपूर्ण अपने जाति कुल की मर्यादा का परचम फहराता था ।
तो संक्षेप में यही है संस्कार।🙏
मनोरमा जैन पाखी