लुम्बिनी : एक शान्ति स्थल
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि “धर्म अफीम के समान है।” धर्म की परिभाषा व्यक्ति विशेष के विश्लेषण पर निर्भर करती है। परिभाषा चाहे जो हो धर्म का सम्बन्ध कर्म से जरूर होता है परंतु मौकापरस्त लोगों ने कर्म को कर्मकांड का नाम दे दिया है। कर्म और कर्मकांड का दूर दूर तक कोई संबंध नहीं होता जबकि। प्रकृति ने जिस व्यक्ति को जो कार्य प्रदत्त किया है, वही उसका कर्म होता है। ईमानदारी से किया गया कर्म ही व्यक्ति का धर्म कहलाता है। प्रकृति ने केवल कर्म का निर्माण किया है, धर्म तो ठेकेदारों ने बनाए हैं। लोग विभिन्न धर्मों में तुलना करने लग जाते हैं, फलां धर्म बड़ा है फलां धर्म बेकार है। धर्म न तो कोई छोटा होता है न कोई खराब। धर्म सब अच्छे हैं, सबके सिद्धांत कमोबेश समान ही हैं। हमने और आपने ही उनमें विकृतियां पैदा कर दी हैं। राजनैतिक लोग धर्म की आड़ लेकर अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं। भारतवर्ष के संविधान में सभी धर्मों के अनुयायियों को समान मौलिक अधिकार दिए हैं। फिर भी कभी राम की झोपड़ी जल रही है तो कभी रहमान की दुकान। भौतिकता के युग में वैसे तो आदमी आर्थिक प्रतिस्पर्धा में अत्यधिक तल्लीन है। पेट की आग के आगे आदमी अपना धर्म भी भूल जाता है। दुनियां में अनेक धर्मो के मताबलम्बी लोग निवास करते हैं। कोई हिन्दू है कोई मुसलमान है कोई ईसाई है कोई पारसी है। कोई सिख है तो कोई जैन है। हमारे देश में सभी धर्मों के मानने वाले लोग निवास करते हैं। सबको संविधान ने धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है।
हमारे विद्यालयों में जो पाठ्यक्रम बनाए जाते हैं उनमें भी सभी धर्मों का बराबर ध्यान रखा जाता है। अगर होली या दीपावली के पाठ हैं तो ईद और गुरुनानक के पाठ भी शामिल हैं। अगर क्रिसमस का जिक्र है तो महावीर स्वामी और भगवान बुद्ध का नाम भी सम्मिलित है। जब मैं इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहा था तब लाइट ऑफ एशिया नाम की पुस्तक पढ़ने को मिली, जिसमें भगवान बुद्ध के जीवन की तीन घटनाओं का वर्णन किया गया है। भगवान बुद्ध का जन्म राजसी परिवार में होता है फिर भी वे राजसी ठाट-बाट में भी प्रसन्न नहीं थे। वे सत्य जानना चाहते थे, इसलिए उन्होंने गृह त्याग कर दिया। मैं व्यक्तिगत रूप से बुद्ध के दर्शन से बहुत प्रभावित हुआ। घुमंतू प्रवृत्ति के कारण मैने उसी समय निश्चय किया कि जीवन में एक बार भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी जरूर जाऊंगा। सौभाग्य से बेसिक शिक्षा विभाग की नौकरी में पहली नियुक्ति जनपद बस्ती में सिद्धार्थ नगर/बांसी रोड पर विशुनपुरवा के निकट परसा गांव में मिली। बस्ती जनपद मुख्यालय पर किराए के मकान में रहकर विद्यालय जाना और खा पी कर सो जाना , बस इतनी सी दिनचर्या थी। बस्ती में बोलचाल की भाषा हिन्दी ही है परंतु अवधी और भोजपुरी का मिश्रण मिलता है। जब दो लोग बस्ती के आपस में बातचीत करते होते तो समझना बड़ा कठिन होता था। स्कूल में बच्चे ठेठ अवधी में बात करते तो उनके मुंह को देखते ही रह जाता। वे कुछ समस्या लेकर आते तो मैं असमंजस में पड़ जाता कि जब मैंने इनकी समस्या ही नहीं समझी तो क्या समाधान दूं। वहीं की स्थानीय शिक्षामित्र शशिकला की ओर इशारा कर समस्या का निवारण करा देता। शशिकला की अनुपस्थिति में रसोइयों की मदद से काम चल जाता। धीरे धीरे बच्चे और मैं एक दूसरे की बातें समझने लगे। बच्चों की मूल प्रवृत्तियां लगभग समान होती हैं, इसलिए उनको समझना आसान हो गया था। सम्मान की दृष्टि से देखा जाए तो पूर्वांचल में गुरु यानि अध्यापक का सम्मान गांव में पश्चिम के जिलों से ज्यादा है।
वहां के स्थानीय लोगों में भले ही शिक्षा की कमी हो परंतु गाँव के स्कूल के मास्टर का बेहद सम्मान उनके दिल में देखने को मिला। परसा गांव अति पिछड़ा गांव था। नज़दीक ही दमया नाम का गाँव मिलाकर एक ग्रामसभा थी। दमया की आर्थिक स्थिति परसा से ज्यादा ठीक थी। अनुसूचित सीट होने के कारण निरहू जो जाति से चमार थे नए नए प्रधान बने थे। निरहू से पहले कविमुन्निशा नाम की मुस्लिम महिला जो दमया गांव के जमील की पत्नी थी, ग्राम प्रधान थी। कविमुन्निशा के कार्यकाल में भी विद्यालय में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ और न निरहू ने कभी विद्यालय की कार्यप्रणाली में अड़ंगा डाला। निरहू बहुत सज्जन व्यक्ति थे, कभी विद्यालय आते भी तो खड़े ही रहते। मैं उनसे बैठने की कहता तो बहुत मुश्किल से ही बैठते।
परसा के उत्तर दिशा में जूनियर हाईस्कूल था। अनुसूचित और पिछड़े वर्ग के बच्चे कक्षा 8 यहां से उत्तीर्ण कर या तो बम्बई काम की तलाश में निकल जाते या गांव में ही किसी जमीन्दार की जी हजूरी करते थे। स्कूल के छोटे-छोटे बच्चे पेट भरने के लिए सुबह से शाम तक पानी से भरे किसी गड्ढे के किनारे बैठे वंशी (मछली पकड़ने का सामान) लगाए मिल जाते हैं। यहां के लोग मछली के अत्यधिक शौकीन होते हैं। बस्ती जनपद मुख्यालय से मेरे स्कूल की दूरी लगभग 23 किलोमीटर होगी। सड़क बेहद ही खराब। इस मार्ग पर रोडवेज़ बस भी निगम के अधिकारी छांट के लगाते खटारा से खटारा। 23 किलोमीटर की दूरी सवा घंटे में तय होती थी। बस से स्कूल आने का मतलब था लेट पहुंचना। पास के गांव गोविंदपुर पोखरा के विद्यालय के मास्टर साहब गिरिजेश चौधरी जी जो मोटर साइकिल से आते जाते थे, बस्ती जनपद मुख्यालय के नजदीक ही डारेडीहा गांव के रहने वाले थे। आते जाते मुलाकात हुई और ये मुलाकात दोस्ती में बदल गई। वे मुझे बस्ती से स्कूल तक अपनी मोटरसाइकिल से छोडते और वापसी में भी स्कूल से बस्ती तक ले जाते। बस्ती जनपद में गिरिजेश चौधरी जी ने मुझे कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि मैं अपने घर से 550 किलोमीटर की दूरी पर रहकर नौकरी कर रहा हूँ कब दिन निकला कब रात हुई पता ही नहीं चला।
नौकरी में मेरी मित्रता वैसे तो बाहरी जनपदों के कई साथी शिक्षकों से हुई परंतु कानपुर के प्रवीण कुमार पाल से खूब जमी। सुबह का खाना हम लोग स्कूल जाने की तैयारी की बजह से नहीं कर पाते थे, रास्ते में ही हैवी नाश्ता मैं और प्रवीण पाल जी साथ ही किया करते थे। जब हम लोगों की पदोन्नति हुई तो प्रवीण पाल जी मेरे नज़दीक ही दमया के हेड मास्टर बन गए। गिरिजेश चौधरी जी साऊंघाट ब्लॉक में जगह मिल गई। गिरिजेश जी की जगह अब मैं प्रवीण जी की मोटरसाइकिल पर बैठकर विद्यालय करने लगा। प्रवीण जी को सभी साथी मित्र “पी के” कहते थे। पी के बहुत ज्यादा टेंशन नहीं लेते थे। जिंदगी को मस्ती के साथ जीना उनको ज्यादा पसंद था। नौकरी में भी उन्होंने कभी टेंशन नहीं ली। घूमने फिरने के शौकीन पी के ने इकदिन मुझसे कहा क्यों न रविवार की छुट्टी में लुम्बिनी चला जाए। मेरे तो मन की बात थी तो बिना सोचे समझे हां कह दी मैने भी। पी के जिस मकान में किराए पर रहते थे उसी मकान में कुशीनगर के प्रशांतश्रीवास्तव जी भी रहते थे। प्रशांत श्रीवास्तव जी स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत थे। बहुत नम्र और कर्मठ व्यक्ति थे वह। पी के ने जब श्रीवास्तव जी से लुम्बिनी जाने की चर्चा की तो वह भी सहर्ष तैयार हो गए।
अगले रविवार को प्रातः ही तीनों लोग तैयार थे। प्रशांत श्रीवास्तव जी के पास पुरानी मारुति800 थी उसी में पेट्रोल डलवाया और निकल दिए। अक्सर बांसी रोड पर लुम्बिनी का बोर्ड देखते थे उसी रास्ते बढ़ चले। ऊबड़ खाबड़ रास्ते में कार स्पीड नहीं पकड़ पा रही थी। हिचकोले लेते लेते जल्दी ही पेट में भूख लग आई थी। घर से कुछ खा के तो निकले नहीं थे। रुधौली कस्बे से निकल कर सड़क के किनारे बने एक चाय के देशी होटल पर कार रुकवाई। गरमागरम समोसे सिक रहे थे दो दो समोसे मटर के साथ और चाय पीकर पेट का वजन बढ़ा कर आगे बढे। रुधौली से सिद्धार्थ नगर होते हुए ककरहवा और फिर इंडो नेपाल बॉर्डर पर पहुंचे। बॉर्डर पर नो एंट्री का बोर्ड लिखा देख बहुत कष्ट हुआ। कार साइड में लगाकर पता किया तो बताया कि चार पहिया गाड़ी इधर से नेपाल में प्रवेश नहीं कर सकती, अनुमति नहीं है। अगर आपको कार से ही आगे जाना है तो सौनौली बोर्डर से प्रवेश करना पड़ेगा जो यहां से लगभग 50 किलोमीटर आगे है।
पी के और प्रशांत जी ने आपस में बातचीत की और स्थानीय दुकानदारों से जानकारी ली। एक दुकानदार ने कहा आप कार हमारी दुकान के बगल खाली जगह में खड़ी कर पैदल बॉर्डर पार कर लीजिए , थोड़ा आगे जाकर नेपाल की ही टैक्सी आपको मिल जाएगी। आपको लुम्बिनी तक पहुंचा देगी। वापिस यहां से अपनी गाड़ी ले लेना। बात कुछ जंच गई इसलिए कार वहीं छोड़ दी और बॉर्डर पैदल पार करने का फैसला किया। बॉर्डर पर इस तरफ भारतीय पुलिस और उस तरफ नेपाल की पुलिस लगी हुई थी जो बॉर्डर के आर पार जाने वालों पर निगाह रखते थे। दुकानदार की दरियादिली देखकर मन हुआ कि एक चाय उसके साथ पी जाए। चाय के लिए वहीं बैठ गए, पुलिस वाला सिपाही भी पास ही बैठा निकलने वालों पर निगरानी में तल्लीन था। तभी एक आदमी साइकिल के डंडे में झोली बनाए दो बकरी के बच्चे लिए पुलिस वाले के पास आया और मुठ्ठी बांधकर कुछ मुद्राएं उसके हाथ में देकर बॉर्डर पार कर गया। ये सिलसिला मेरे सामने कई बार दोहराया गया तो मुझसे नहीं रहा गया और दुकानदार से प्रश्न दाग ही दिया “भैया क्या खेल चल रहा है ये” दुकानदार मुस्कराता हुआ बोला “भाई साहब ये हिंदुस्तान है और हिंदुस्तान में भी उत्तर प्रदेश, यहां ईमान रुपयों में बिकता है।” यहां ड्यूटी लगवाने के लिए सिपाही भी सिफारिश लगवाते हैं और घूस देते हैं।” मैं दुकानदार की बात सुनकर दंग रह गया। दिमाग सुन्न हो गया।
चाय पीकर बॉर्डर पार किया और नेपाल देश का वाहन पकड़ा। नेपाल देश के बारे में सुना था कि नेपाल क्षेत्रफल में तो छोटा है ही गरीब भी है, आज नेपाल की जीप में बैठ कर अहसास हो गया था कि जैसी जीपें हमारे देश में बीस साल पहले डग्गेमार वाहन की तरह इस्तेमाल होती थीं नेपाल में आज भी वैसी ही स्थिति है। सिंगल रोड पर जीप घर्र घर्र कर स्टार्ट हुई कभी बन्द। जितनीं सवारियां अंदर उससे ज्यादा बाहर लटक रहीं थीं। नेपाल की यातायात व्यवस्था तो हमारे यू पी से भी गई गुजरी निकली। जीप के रेडिएटर को हर दो किलोमीटर पर प्यास लग जाती थी। वो तो गनीमत समझिए कि रास्ते में चार छः मकान हर एक दो किलोमीटर पर बने हुए थे, और हैंडपंप लोगों ने घरों के बाहर ही लगवा रखे थे। रास्ते में ऊँचे ऊंचे पेड़ और चारो ओर हरियाली ही हरियाली थी। तीन चार किलोमीटर चल कर जीप खराब हो गई। किराया पहले ही दे चुके थे। अब बड़ा दिमाग खराब। लौटना भी था लुम्बिनी घूमघाम के शाम तक, घड़ी में पौने दो बज चुके थे। मन में सोचा किस मनहूस का मुंह देखकर चले थे कि लेट पे लेट हो रहे हैं। एक घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद ड्राइवर और कंडक्टर ने जीप की मरम्मत कर ही ली। हम सोचते थे कि हमारे यू पी के ही ड्राइवर और कंडक्टर को ही मिस्त्रायत में महारत हासिल है पूरी दुनिया में। जीप आगे बढ़ी।
कच्चे मकानों के बीच एक दो पक्के मकान भी थे रास्ते में। शुद्ध वातावरण में बसे छोटे छोटे गांव घरों के चारो ओर छोटे छोटे फूलों वाली फुलवारियां देखकर उन पोस्टरों की बरबस याद दिला रहे थे जिन्हें हम घरों में मनोहारी प्राकृतिक दृश्य खरीदकर दीवारों पर दीपावली की पुताई के बाद लगाते हैं। दिमाग सुन्न हो गया। चाय पीकर बॉर्डर पार किया और नेपाल देश का वाहन पकड़ा। नेपाल देश के बारे में सुना था कि नेपाल क्षेत्रफल में तो छोटा है ही गरीब भी है, आज नेपाल की जीप में बैठ कर अहसास हो गया था कि जैसी जीपें हमारे देश में बीस साल पहले डग्गेमार वाहन की तरह इस्तेमाल होती थीं नेपाल में आज भी वैसी ही स्थिति है। सिंगल रोड पर जीप घर्र घर्र कर स्टार्ट हुई कभी बन्द। जितनीं सवारियां अंदर उससे ज्यादा बाहर लटक रहीं थीं। नेपाल की यातायात व्यवस्था तो हमारे यू पी से भी गई गुजरी निकली। जीप के रेडिएटर को हर दो किलोमीटर पर प्यास लग जाती थी। वो तो गनीमत समझिए कि रास्ते में चार छः मकान हर एक दो किलोमीटर पर बने हुए थे, और हैंडपंप लोगों ने घरों के बाहर ही लगवा रखे थे। रास्ते में ऊँचे ऊंचे पेड़ और चारो ओर हरियाली ही हरियाली थी। तीन चार किलोमीटर चल कर जीप खराब हो गई। किराया पहले ही दे चुके थे। अब बड़ा दिमाग खराब। लौटना भी था लुम्बिनी घूमघाम के शाम तक, घड़ी में पौने दो बज चुके थे। मन में सोचा किस मनहूस का मुंह देखकर चले थे कि लेट पे लेट हो रहे हैं। एक घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद ड्राइवर और कंडक्टर ने जीप की मरम्मत कर ही ली। हम सोचते थे कि हमारे यू पी के ही ड्राइवर और कंडक्टर को ही मिस्त्रायत में महारत हासिल है पूरी दुनिया में। जीप आगे बढ़ी। कच्चे मकानों के बीच एक दो पक्के मकान भी थे रास्ते में। शुद्ध वातावरण में बसे छोटे छोटे गांव घरों के चारो ओर छोटे छोटे फूलों वाली फुलवारियां देखकर उन पोस्टरों की बरबस याद दिला रहे थे जिन्हें हम घरों में मनोहारी प्राकृतिक दृश्य खरीदकर दीवारों पर दीपावली की पुताई के बाद लगाते हैं। लगभग एक घंटे की कछुआ गति की यात्रा के बाद जीप खड़ी हुई, कंडक्टर ने नीचे उतरने का इशारा किया, एक बार को तो हम समझे कि लगता है फिर से खराब हो गई, परंतु हमारा अनुमान गलत साबित हुआ। हम बुद्ध गार्डेन के सामने थे।
अब यहां आगे से पैदल जाना था। अब भूख के कारण शरीर भी जबाब दे चुका था। इधर उधर देखा तो एक प्लास्टिक की तिरपाल में दुकानदार भट्टी लगाए केला की पकौड़ी छान रहा था। देखते ही मुंह की लार ग्रंथियां सक्रिय हो उठीं। चटनी के स्वाद के आगे तो बीकानेरी चाट भी फीकी थी। तीनो लोगों ने दो दो प्लेट पकौड़ी की खा के डकार मारी। पकौड़ियों की दनादन तारीफ करते हुए बुध गार्डेन के बीच बने रास्ते पे चल पड़े क्योंकि पकौड़ी वाले ने बताया कि इधर से सीधा पड़ेगा।
गार्डन में बेतरतीब व्यवस्था लुम्बिनी को चिढ़ा सी रही थी। हम लोग झाड़ियों में बनी पगडंडियों में सांप बिच्छुओं से डरते डरते लुम्बिनी के अहाते में प्रवेश पा ही गए। गहरी सांस लेकर भगवान बुद्ध की जन्मस्थली को नमन किया। लुम्बिनी का दृश्य देखकरआंखे फटी की फटी रह गईं। पहले जन्मस्थान को देखने का निर्णय लिया। काउंटर से प्रवेश कर चुका कर पास प्राप्त कर जूते चप्पल बाहर उतार कर अंदर प्रवेश किया। जिस महल में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था आज वह जर्जर स्थिति में है। जन्म स्थान को लकड़ी के तख्ते और बल्लियों से संरक्षित किया गया है। जन्म स्थान के दर्शन पाकर अपार ऊर्जा की प्राप्ति हुई, सुबह से भाग दौड़ की सारी थकान रफूचक्कर हो गई। पीछे ही सम्राट अशोक द्वारा 249 ईसा पूर्व में भगवान बुद्ध के जन्म के 300-400 वर्ष बाद बनवाया गया स्तंभ देखा। इस स्तंभ पर पालि भाषाए लिखी हुई है। पास में ही विशाल बोधिवृक्ष भी था और एक बड़ा सा तालाब जिसमें बड़ी बड़ी मछलियां पूरी मस्ती के साथ उछल कूद कर रहीं थीं। पर्यटक इन मछलियों को आटे की गोलियां खिला रहे थे। वहां पर्यटकों ने बताया कि भगवान बुद्ध को जन्म देने से पूर्व उनकी माँ महामाया अपनी ससुराल से मायके जा रहीं थीं तो प्रसव पीड़ा अनुभव कर इसी तालाब और बोधिवृक्ष के निकट उन्होंने भगवान बुद्ध को जन्म दिया था। इस तालाब में महामाया ने स्नान भी किया था। इस बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर पर्यटक शांति का अनुभव पाते हैं। 1997 में महामाया मंदिर यानि माया देवी मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित कर लिया था।
सैकड़ों एकड़ भूमि पर प्लानिंग कर पर्यटन के लिए विकसित किया जा रहा है। महामाया मंदिर के पश्चिमी ओर लगभग 2 किमी कृत्रिम कैनाल बनाई गई है जो पूरी तरह से पक्की हैं इस कैनाल के दोनों ओर हरे भरे वृक्ष और बैठने के इंतजाम किए गए हैं जिससे पर्यटक बैठकर पानी और छाया का आनंद ले सकें। इस कैनाल में बोटिंग की भी व्यवस्था की गई है। इस कैनाल के पश्चिम म बौद्ध धर्म के महायान शाखा के देश कोरिया, चीन, जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रिया, वियतनाम और लद्दाख के अलग अलग बहुत सुंदर और विशाल मंदिर बने हैं वहीं पूर्व दिशा में थेर वाद शाखा के थाईलैंड, म्यामांर, कंबोडिया और भारत के मंदिर हैं जो वास्तुकला के जीते जागते उदाहरण हैं। मंदिरों की शांति देखकर दुनिया के कोलाहल से दूर यहीं बस जाने का मन करता है। पैदल चलकर पूरे परिसर को एक दिन में देख पाना संभव नहीं था। चूंकि बॉर्डर पर हमारी कार हमारा इंतज़ार कर रही थी सूरज भी अपनी थकान उतारने के लिए गगन से ओझल हो चला था। दोबारा लुम्बिनी आने की आस लिए बस्ती लौट आए।
नरेन्द्र ‘मगन’ कासगंज
9411999468