“लुप्त उत्सर्ग”
तुम्हारे “तुम”बनने मे
हमारा योगदान कुछ यूँ रहा
कि,
जब हम काली चाय स्वाद से सुड़के
तब कहीं तुम्हें दूध गिलास मिल पाये
कि,
जब हम भात संग गुदड़ी(तोरी) साग सपोड़े
तब कहीं तुम्हारी थाली मे राजमा चावल परसे गये
जब हम घर-गाँव मे,
बिना रजिस्टर मे नाम दर्ज करवाये
छुप के बैठे कक्षा मे
तब कहीं तुम परदेस मे खोज पाये अपनी राह …
जब हम माँ की पुरानी साड़ियों के झगुले(कुर्ते) पहने
तब तुम्हें टाई वाली पोशाकें मिल पायीं।
तुम्हारे तुम बनने मे
हमारे जो लुप्त उत्सर्ग रहे
उनका तुम्हें
कभी अहसास भी नहीं होने दिया।
तुम्हारे “तुम”बनकर
तुम्हें जो भाव मिले
उसके लिए हमने हँसकर सौ अभाव सहे।
अपने इस उपयोग को
हम सहयोग समझ गर्वित होते रहे।
तुम “तुम” बन गये
हम जो थे वही रह गये
फिर भी हम बहुत खुश थे।
बात इतनी भर थी कि,
तुम वंशबेल थे
और
हम अनचाही जंगली फूस
तुम उनके बुढ़ापे की पूँजी थे
और
हम परायी अमानत की कुंज
-निकीपुष्कर