लीजिए लीजिए… जी नहीं…
पिछले दिनों से मैं एक ऐसे ठोस शीर्षक की तलाश में था। जिसे पढ़ने के बाद आप अपने आपको पूरा लेख पढ़ने से रोक नहीं सकते। लेकिन इन दिनों में कुछ खास नहीं लिख पाया। ऐसा भी नहीं है, कि मैं समय निकालकर लिखना नहीं चाहता था। परंतु आप ही बताइए ‘शादियों के उत्सव’ के चलते भला कोई कैसे लिख पाएगा। शादियों का उत्सव मैं लगातार शादियां हो रही थी। और आमंत्रण पत्र का तो पूछो ही मत ढेर लग गए थे, क्योंकि जो कोरोना काल में वंचित रहे उनकी भी बारी इस बार निकल गई। इन दिनों सब आनंद में थे। भले शादी किसी की भी क्यों ना हो। दूल्हा दुल्हन अपनी शादी को लेकर आनंद में थी। हमारा शरीर नए वस्त्र को पहन आनंद में रहता था, तो हमारा मन साज सज्जा को देख आनंद में था, और हमारा मुंह विभिन्न प्रकार के व्यंजनों को देख आनंद में भरा रहता था। व्यंजन में भी अनेक प्रकार के व्यंजन, आजकल प्रतिभोज के नाम पर कई प्रकार के इटालियन फूड, चाइनीस फूड व अनेकों प्रकार के पश्चात सभ्यता के व्यंजनों को मैन्यू में जोड़ा जाता है। और न जाने खाने के बीस- बीस ,पच्चीस -पच्चीस स्टॉल लगाए जाते हैं। एक व्यक्ति अगर खाने की शुरुआत भी करें तो वो वहां तक नहीं पहुंच सकता जो उनका प्रिय व्यंजन है। क्योंकि 14 इंच की गोल प्लेट जो सात- आठ स्टॉल तक आते-आते लेट फुल। इन सब में कोई न कोई तो ऐसा व्यक्ति मिल ही जाता है। आपने वो तो लिया ही नहीं, अब आप ही बताइए यह सब स्टेटस सिंबल नहीं तो और क्या है? हम खिलाने से ज्यादा स्टेटस को बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। खिलाने से ज्यादा, दिखाने पर विश्वास करते हैं। यकीन मानिए मैन्यू तय करते वक्त यही ख्याल रहता है। लोग क्या देखते हैं, बस खाना अच्छा होना चाहिए। लेकिन यह कतई विचार नहीं करते कि यह सब शादी जैसे पुण्य बंधन में अपनी भूमिका निभाने आए हैं ये ही नहीं ऐसे सैकड़ों उदाहरण है। मैं अपने गांव की बात करूंगा। पिछले दिनों मेरे घर मेहमान आए। वे लोग हमारे गांव से अपरिचित थे। आए पानी पिलाया, चाय के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया क्योंकि उनमें से दो व्यक्ति थोड़े शर्मीले स्वभाव के थे। शायद इसलिए मना कर दिया हो। फिर हमारी बातचीत हुई तब पता चला कि उन्हें घर जाना था। नाथू जी हमारी गली में रहते हैं। तो मै उनके साथ उनके घर गया। नाथू जी थोड़े अलग अंदाज के व्यक्ति थे। वे चकाचौंध पर अधिक विश्वास करते थे। हम उनके घर गए। परिचय हुआ, फिर हमारे सामने काजू ,बदाम व अनेकों ड्राई फ्रूड की प्लेट सामने रखी। बोले लीजिए लीजिए हम सब ने कहा जी नहीं…जी नहीं… उनके आग्रह करने की और हमारे मना करने की प्रक्रिया लगभग दो तीन बार हुई। फिर हम सब ने लेना शुरू किया। और देखते ही देखते ड्राई फूड खत्म हो गए। उस समय नाथू जी का व्यवहार थोड़ा बदला सा लग रहा था। जो व्यवहार व प्रशंसा पहले थी, अब वह पूर्ण रुप से बदलता महसूस हो रही था। क्योंकि इसका सीधा कारण जाने तो जो चीज तीन महीने से चल रही थी। वह एक ही दिन में खत्म हो गई। यकीन मानिए यही हमारी सच्चाई है, हमारे स्वभाव में आ गया है। हम अपने स्टेटस सिंबल को बढ़ाने की दौड़ में इंसान को अहमियत नहीं देते हैं। हम खिलाने से ज्यादा दिखाने पर विश्वास करते हैं। खिलाने का भाव हमारा रहता ही नहीं है। और यकीन मानिए यह स्वभाव हमारे रिश्तों को यूज एंड थ्रो की ओर ले जा रहा है।
जय हिन्द
जसवंत लखारा