#लाश_पर_अभिलाष_की_बंसी_सुखद_कैसे_बजाएं?
#लाश_पर_अभिलाष_की_बंसी_सुखद_कैसे_बजाएं?
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है लिखा विधि में विधाता ने तमस का ही सबेरा,
तो बताओ इस दिवाली दीप फिर कैसे जलायें।
स्वप्न पे मरघट लिखा है
और शुक्लक सङ्ग दूरी,
कालिमा को कर ग्रहण हम
शून्य से संवाद करते।
है पता जब भाग्य अपना
जो विधाता ने वदा है,
फिर भला किस हेतु हम निज
देव से परिवाद करते।
क्षुब्ध जो तन है क्षुधा से क्या करे वह उत्सवों का,
वेदना वेधित हृदय त्योहार फिर कैसे मनाएं।
है लिखा विधि में विधाता ने तमस का ही सबेरा,
तो बताओ इस दिवाली दीप फिर कैसे जलायें।।
कर्म दुष्कर नित्य करते
लब्ध से अलगाव लेकिन,
नत पड़ा पुरुषार्थ मेरा
सद्य ही अब दैव्य सम्मुख।
कृत्य साहस व्यर्थ सब कुछ
कष्ट से संतप्त जीवन,
क्रूर क्रंदन भाग्य का तो
दिव्य जन हो दृश्य दुर्मुख।
इस व्यथा की अब्धि में हम डूब तो सिर तक गये हैं,
काश! कोई अद्य आकर ले हमारी भी बलाएं।
है लिखा विधि में विधाता ने तमस का ही सबेरा,
तो बताओ इस दिवाली दीप फिर कैसे जलायें।।
त्यक्त हर संबंध से हम
और संबंधी न कोई,
हम बेचारों का रहा निज
पीर से अनुबंध गहरा।
विस्मयी- बोधक लगे यदि
उर उमंगित हो हमारा,
हत- हृदय अवसाद पीड़ा
भूख से आबंध गहरा।
कल्पना की डोर टूटी और बिखरे आस मन के,
लाश पर अभिलाष की बंसी सुखद कैसे बजाएं।
है लिखा विधि में विधाता ने तमस का ही सबेरा,
तो बताओ इस दिवाली दीप फिर कैसे जलायें।।
कान्ति निर्मल ने तजा है
और तम ने बांह थामा,
तंगहाली प्रेमिका बन
अंक में भरने लगी है।
जो धनेश्वर हैं जलाएं
दीप उत्सव के निरंतर,
हम पुजारी कालिमा के
वेदना अपनी सगी है।
वस्तु कोई है न इच्छित ज्ञात मुझको दैव्य मेरा,
लुप्त है जो लब्ध उसके हेतु क्यों हड्डी गलाएं।
है लिखा विधि में विधाता ने तमस का ही सबेरा,
तो बताओ इस दिवाली दीप फिर कैसे जलायें।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’