लाठा-कुँड़ी
लाठा-कुँड़ी
: दिलीप कुमार पाठक
एक दिन पड़ाइन, ” का जी ? सुन हीबs कि सब से बड़का- बड़का मजाक कर हहु. हमरा आँगे मुँहें लटकल रह हओ. का बात हब ? मेहरारू से डर लगs हब का.”
देबन सुन के रह गेलन.
सार अयलन हे समनपुरिया लेके. पड़ाइन परेशान हथ. घर में एको ठोप पानी न. डोर-बल्टी पता न कहाँ रखा गेलक हे. बादर के भी आजे फटे ला हल. इन्दर देवता हहास रहलन हे. का कयल जाओ ?
खँढ़ी में नया कुँइयाँ खनायल हे. तीयन-तरकारी पटाबे ला लाठा-कुंड़ी गाड़ल गेल हे. पड़ाइन देवन के पुकारलन, “ए जी, सुनइत ह.”
“का ?”
“एको चुरुआ पिये के पानी न हे. डोर-बल्टी भी नजर न आबइत हे. खँढ़ी के लाठा-कुँड़ी से पानी ले आबs न. भिंगबे न करबs.”
” पर उ चलत कइसे ? ओकरा पर के टँगल जाँता त तु उतरबा लेल हे. ”
“तब का कयल जाओ ? कोई उपाय……..”
देवन कुछ सोचे लगलन.
“हाँ, एगो काम करबs”
“का ?”
“जाँता के जगह पर तुँ बइठ जा. ”
” का जी ? का समझ रखलs हे ? हम कोई जाँता हिआ.”
” त रखs अपन भाई के पिआसे. कोई देखतो थोड़े. हमहीं तु न रहब. चलs हाली सुन पानी निकाल लेल जाओ. इ साबन-भादो के बरसात के कोई ठिकान हब. भींगबे न करम.”
उपड़ाइन जाँता के जगह पे बइठे ला मान गेलन. देबन सब कपड़ा खोल के गमछा में आ गेलन. पड़ाइन भी नहाय बाला भेष बना लेलन. दुनो चललन खंढ़ी तरफ गगरी लेके.
पड़ाइन लाठा पर जाँता के जगह पर जाँता के अँड़काबे वाला लकड़ी के भर अकबार पकड़ के चिपक गेलन. देवन कुँड़ी के कुँइयाँ में डाले लगलन. कुँड़ी जइसहीं पानी छूलक, कुँइयाँ के अरारे भँसक गेलक. देवन के आधा देह कमर से नीचे तक कुँइयाँ में आउ आधा देह ऊपर नेबारी के रस्सी पकड़ले टंगल हथ. का कयल जाओ ? साँसे थम्हल जाइत हे. ऊपर पड़ाइन के परान सुखल जाइत हे से अलग.
“दउड़िह जी, दउड़िह जी ! बहिन ऊपर टँग गेलथू हे आउ हम कुँइयाँ में गिरल जाइत हिओ.” जोर से अबाज लगयलन देबन.
देबन के सार हदफदायल अयलन. बहिन जीजा के लीला देख दंग रह गेलन.
“दूर महराज, तोहनी गजबे ह.”
तब तक इन्दर महराज भी थम्ह गेलन हल।
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