लहरों का आलाप ( दोहा संग्रह)
समीक्ष्य कृति- लहरों का आलाप ( दोहा संग्रह)
कवयित्री- आशा खत्री ‘लता’
प्रकाशक- साहित्य भूमि, नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष-2018
मूल्य- रु 250/
जीवनानुभवों का निचोड़: लहरों का आलाप
‘दर्द का दस्तावेज’,’आखिरी रास्ता’ (कथा संग्रह )और बेटी है ना!( लघुकथा संग्रह) की लेखिका आशा खत्री ‘लता’ की नव्यतम् कृति है- ‘लहरों का आलाप’ जो कि एक दोहा संग्रह है। इस दोहा संग्रह में कवयित्री के 721 दोहे संग्रहीत हैं।इन दोहों को कवयित्री ने वाणी उपासना, माँ वाणी वरदान,नमन,प्रकृति,गाँव, चतुर सयानी रूपसी, हिंदी,बचपन,ममता,धरतीपुत्र ,प्रेम, सास बहू,मौन, विविध, चुनाव,विरह,व्यंग्य विनोद,अंतरजाल हौसले,काल बलि और समापन सहित 21 शीर्षकों में विभक्त किया है। इसमें सबसे अधिक दोहे विविध शीर्षक के अंतर्गत समाहित किए गए हैं।
वीणापाणि माँ वागेश्वरी की वंदना के पश्चात ‘लता’ जी ने
नमन शीर्षक के अंतर्गत देश के उन वीर सपूतों को नमन किया है जो देश की आन – बान और शान के लिए अपना
सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं।उन वीर सपूतों के जाने के बाद उन घरों का क्या हाल होता है जिनका कमाऊ पूत दुनिया छोड़ जाता है,की सुधि लेने वाला कोई नहीं होता। कवयित्री का एक दोहा इस संबंध में द्रष्टव्य है-
पूछा है क्या आपने,उस घर का भी हाल।
रक्षा करते देश की,खोया जिसने लाल।। पृष्ठ-13
लता जी ने बड़े सहज रूप में प्रकृति चित्रण करते हुए प्रकृति के माध्यम से जीवन दर्शन को व्याख्यायित करने का सफलतम प्रयास किया है –
झरता पत्ता कह गया,बड़े पते की बात।
जब तक मैं था शाख पर,तब तक थी औकात।। पृष्ठ-15
वैसे तो परिवर्तन प्रकृति का नियम है किंतु कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं जो हमें व्यथित करते हैं। ऐसा ही एक बदलाव है – ग्रामीण परिवेश एवं समाज में बदलाव। शहरीकरण, राजनीति और भौतिकता ने हमारे गाँवों को पूरी तरह बदल कर रख दिया है-
हवा शहर की बह चली,जब से मेरे गाँव।
उम्मीदों के हो गए,तब से भारी पाँव।।
छूटे पनघट खेत अब,भोले भाले लोग।
लागा मन के गाँव को,शहरीपन का रोग।।पृष्ठ-17
बालपन सभी को आकृष्ट करता है। कवयित्री का मन भी इससे अछूता नहीं है।उसे अपने और आज के बचपन में एक अंतर दिखायी देता हैं। जहाँ पहले बच्चे उछल-कूद वाले खेल खेला करते थे,वहीं आज के बच्चे टी वी और मोबाइल गेम में व्यस्त रहते हैं।इससे उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कवयित्री इस को लेकर चिंतित दिखाई देती है-
आइस पाइस खेलकर,बड़े हुए हम लोग।
चस्का टीवी फोन का,अब बचपन का रोग।।पृष्ठ-21
कृषि प्रधान देश में कृषकों की दयनीय स्थिति अत्यंत हृदय विदारक होती है।दुर्भाग्यवश हमारे देश में कृषकों की चिंताजनक है। लता जी ने किसानों की पीड़ा का मार्मिक चित्रण अपने दोहों में किया है-
ऐ साहब मत पूछिए,मुझसे मेरे हाल।
बिना शगन बेटी गई,दई बिजाई टाल।।
सोना चाँदी दौलतें,रंग बिरंगे फूल।
दो रोटी के सामने,सारे लगें फिजूल।। पृष्ठ-23
प्रेम में एक दीवानगी और अपनापन होता है। लता जी ने प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सटीक वर्णन किया है। कहीं कहीं उनके दोहे बिहारी लाल की याद करा देते हैं-
भूल गई पाकर तुझे,दुनिया का व्यवहार।
चली कहीं के भी लिए,पहुँची तेरे द्वार।। पृष्ठ-31
काँटों के इस दौर में, फूलों का अहसास।
दे जाती है जिंदगी, जब भी बैठो पास।। पृष्ठ-32
आँसू छल के आँख से,उठती दर्द हिलोर।
गम की रैना है बड़ी,दूर मिलन की भोर।। पृष्ठ 101
सास बहू के रिश्ते में एक नया मोड़ आया है। आज वह समय नहीं रहा जब सास बहू पर हुक्म चलाया करती थी। अब बहुएँ सास के ऊपर हुकूमत करती हैं-
चला रही अब सास सा,बहुएँ हुक्म हुजूर।
बात बात पर धमकियाँ,देती हो मगरूर।। पृष्ठ-35
मानवता जीवन की एक अमूल्य धरोहर होती है। वह व्यक्ति जो मानवता का पक्षधर होता है ईश्वर भी उसके साथ होता है। लता जी का एक दोहा इस संबंध में उल्लेखनीय है-
रघुबर उसके हो गए,और उसी के श्याम।
जीवन जिसने कर दिया,मानवता के नाम।।पृष्ठ-49
एक भूखे व्यक्ति के लिए रोटी ही सब कुछ होती है। इस बात को कवयित्री ने बड़ी सरलता से अपने दोहे में व्यक्त कर दिया है-
रोटी ही महबूब है,रोटी ही ईमान।
भूखे पेटों के लिए,रोटी ही भगवान।। पृष्ठ-53
आधुनिकता के नाम पर समाज में नग्नता का बोलबाला बढ़ रहा है। यह चिंता की बात है। तथाकथित आधुनिक माँ बाप अपने बच्चों के ऊट पटांग परिधान को देखकर हर्षित होते है। कवयित्री ने इसका एक चित्र उकेरने का प्रयास किया है जो कि हमें आगाह करता है-
अर्ध नग्न बेटी फिरे,फूला फिरता बाप।
पुनः पड़ेगा झेलना,फिर आदिम संताप।।पृष्ठ-91
व्यंग्य विनोद के साथ बात कहना अपने आपमें किसी साहित्यकार की एक बहुत बड़ी खूबी होती है। यह खूबी हर किसी में नहीं पाई जाती,पर ‘लहरों का आलाप’ की कवयित्री में यह विशेषता कूट कूट कर भरी है। एक दोहा देखिए-
सैंया ने बैंया छुड़ा, ऐसे किया हलाक।
मैंने तो लव यू कहा,उसने तीन तलाक।।पृष्ठ-104
कालगति अत्यंत क्रूर होती है।कभी-कभी कालगति को जाँचना परखना बहुत मुश्किल होता है। विशेषकर तब , जब वह व्यक्ति जो मरणासन्न अवस्था में है वह कष्ट भोगता रहे और एक चलता-फिरता इंसान हमारा साथ छोड़ दे।इस संबंध में एक दोहा उल्लेख्य है-
चलते फिरते ले चला,राह तकें बीमार।
समझ न आया काल का,हमको यह व्यवहार।। पृष्ठ-111
कवयित्री ने अपने मनोभावों को अत्यंत प्रौढ़ता और परिपक्वता के साथ सहज सरल भाषा में दोहा छंदों में ढाल कर हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि करने का एक महनीय कार्य किया है। इसके लिए ‘लता’ जी बधाई की पात्र हैं।
दोहा सतसई में कुछ जगहों पर मात्रा संबंधी अशुद्धियाँ हैं अर्थात 13/11 का पालन नहीं हुआ है। कतिपय दोहों में पदक्रम संबंधी अशुद्धि भी है।
यदि इन दोषों को नजरअंदाज कर दें तो ‘लहरों का आलाप’ एक पठनीय और संग्रहणीय कृति है। आशा खत्री ‘लता’ जी को इस कृति के लिए अशेष शुभकामनाएँ
– डाॅ बिपिन पाण्डेय