लम्हे
बापू की अपेक्षाओं
का बोझ लादे
सतरंगी सपनें संजोये
मैं पढ़ने बनारस
आ गया था
पर चाह कर भी कुछ
विशेष कर नहीं
पा रहा था।
साहित्य का प्रेमी मै
मेरा मन विज्ञान
से भटक रहा था
लाख कोशिशों के बाद
भी स्वयं को मैं इस
परिस्थितियों से समायोजित
नहीं कर पा रहा था।
हताश आज भी
जीवन का वो लम्हा
मुझे भूलता नहीं
जब मंदाकिनी के तट
पर उदास बैठा
सोच रहा था, क्या
गलत है या क्या सही ?
उस मंजिल की
तलाश में
जिसका मुझे कुछ भी
पता नही था
बापू की उम्मीद व भय
मुझे दिन ब दिन खाये
जा रहा था
निराश तब मैंने
एकाएक इस तीव्र
झंझावत से बचने हेतु
मैंने स्वयं अपने
को समाप्त करने का
एक अनचाहा निर्णय
ले लिया था।
एक अजीब सा
विप्लव व कशमकश
स्वयं पर भी चल नही
रहा था कोई वश।
अचानक माँ की वह सीख
कानों में गूंज उठी
बाबू जब कभी जी घबराये
बस मुझे याद कर लेना
मेरे चेहरे को अपने
सामने रख लेना।
इस खयाल के साथ
मेरी माँ अदृश्य रूप में
मेरे समक्ष खड़ी थी
मुझे देख कर हँस रही थी।
बोली निर्मेष तुम
इतने तो कमजोर नहीं हो
अपने को समाप्त
करने के पूर्व मेरे बारे में
क्या सोचे हो ?
आजीवन पुत्रशोक में
मैं जलती रहूँ
लोगो के उलाहने
और ताने सुनती रहूँ
बापू तेरे कहीं मुहँ
दिखाने लायक न रहे
बस ताने सुनते ही उनका
साधु सा जीवन बीते
कृष्णा किसे राखी
अब बाँधेगी
तुम्हारे पीछे कितनी
विपत्तियां हाथ धोकर
हमारे पीछे पड़ेगी।
तुम्हारे न होने से हम पर
क्या क्या फर्क पड़ेगा?
इसका अंदाजा
तुम्हे बेशक नहीं होगा।
बूढ़े बाप को किसका
सहारा होगा
मेरी और कृष्णा का
भविष्य दावँ पर लगेगा।
बेटा छोड़ो तुम्हे जो
रुचिकर लगे
वही करो
पर बेटा अपने को
समाप्त करने की कल्पना
भी मत करों।
पापा को मैं मना लूँगी
बस तुम अपना
खयाल रखो।
वो दिन और वो जीवन
का लम्हा आज भी
मुझे भूलता नहीं
आज एक आइटियन
से कहीं अच्छा हूँ
जो विदेशों से अपने
माँ-बापू के मौत के
खबर पर ही आते है
क्रियाकर्म के उपरांत
तुरत निकल जाते हैं।
निर्मेष मुझे गर्व है
कि आज भी मैं अपनी
माँ का बच्चा हूँ
बहुत से मेडिकल व
ऐसे आइटियन
से कहीं अच्छा हूँ।
निर्मेष