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■ हसरत का गुब्बारा
【प्रणय प्रभात】
लगभग चार साल बाद एक कार्यक्रम में नेताजी टकरा गए। वही कुटिल सी मुस्कान और दुआ-सलाम का धूर्तता भरा अंदाज़। एक मिनट के लिए खैर-कुशल की औपचारिकता और फिर वही बरसों पुराना सवाल। “क्या लग रहा है इस बार…?”
समझते देर नहीं लगी कि माननीय बनने का कीड़ा खोपड़ी में फिर कुलबुला उठा है। चुनावी साल में सत्तारूढ़ पार्टी के दलाल से क्षेत्र का लाल बन कर निहाल और मालामाल बनने की आग अब भी जवान है।
“लगना क्या है साहब! आपकी पार्टी ही भारी पड़नी है इस बार भी। इतना माल और मशीनरी विरोधियों के पास कहाँ, जो आपके दल के पास है।” मैंने फ़ोकट की चोंचबाज़ी से बचने के लिए उनके मन जैसी बात की। मंशा थी सियासी सवाल-जवाब और बहस से बचने की। पता नहीं था कि जवाब हवन-कुंड में घी की आहुति का काम कर डालेगा।
लगभग चहकते हुए नेताजी फौरन मूल मुद्दे पर आ गए। बोले- “इसमें तो कोई शक़ ही नहीं कि इस बार भी सरकार हम ही बनाएंगे। आप तो अपने क्षेत्र की बताओ ताकि जी-जान से लगें इस बार कोशिश में।” कहने का अंदाज़ ऐसा मानो इससे पहले कभी कोशिश की ही न हो और इस बार मुझ जैसे दीन-हीन पर कृपा करने के लिए मन बनाने जैसा अहसान थोप रहे हों।
समझ आया कि सीधा कहने से समझने वाले ये हैं नहीं। पल भर सोचे बिना मैंने भी कह दिया- “क्यों नहीं, क्यों नहीं…? बिल्कुल करें प्रयास। हारेंगे तो आप भी नहीं।” नेताजी के चेहरे पर अचानक दर्प भरी मुस्कान उभर आई। आसपास बैठे चार-छह चेले-चपाटे भी ख़ुश दिखे। जिनके चमत्कृत होने को भांप कर नेताजी को मानो और बल मिल गया। उन्होंने तुरंत एक कौतुहल भरा सवाल मेरी ओर उछाल दिया। खींसे निपोरते हुए बोले- “अरे वाह यार! आपने इतना पहले इतना सटीक अनुमान कैसे लगा लिया?”
उन्हें शायद पता नहीं था कि मुझे इस सवाल का पहले से अंदाज़ा था। अंदाज़ा क्या, सवाल के शब्द मेरे अपने थे, जो पहले उनकी खोपड़ी में उतरे और फिर मुंह से निकले। बिल्कुल मेरे पूर्वानुमान के मुताबिक। लिहाजा मुझे उनकी जिज्ञासा को शांत करने में पल भर नहीं लगा।
मैंने उनके हाथ से अपना हाथ धीरे से छुड़ाया। कपड़े झाड़ते हुए खड़ा हुआ और बोला- “सर जी! जीत-हार दोनों के लिए सबसे पहले ज़रूरी होता है टिकट मिलना। हारेंगे तो तब ना, जब टिकट की जंग जीतेंगे।” जवाब उन्हें तत्काल समझ आया या नहीं, मुझे नहीं पता। मैं अपनी बात कह कर अन्य परिचितों के समूह की ओर बढ़ गया था और वे अपनी जगह अवाक से बैठे रह गए थे। दावेदारी की गरमा-गरम गैस का गुब्बारा शायद फूट चुका था। दो-चार-छह दिनों के लिए।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)