लघुकथा
“अनुभव बोलता है”
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नौकरी के लिए विदेश जा रहे रौनक की तैयारी में सारा घर लगा हुआ है। माँ का वश चले तो पूरा घर रौनक के साथ कर दें।
रौनक की अलमीरा से कपड़े निकाल कर सुभद्रा को देते हुए माँ बोलीं-” सुभद्रा ! किसी चीज़ की कमी न रह जाए। रौनक की ज़रूरत का हर सामान पैक कर देना। गर्म कपड़े रखना मत भूल जाना।”
सूटकेस को बंद करने में असमर्थ सुभद्रा थकहार कर बोली-” इस सूटकेस को बंद करना मेरे वश की बात नहीं। रौनक, तू सूटकेस पर खड़ा होकर कूद ताकि कपड़े थोड़े से दब सकें।”
सामने खड़े पिता ने दूसरा सूटकेस आगे बढ़ाते हुए कहा-” रौनक इंग्लैंड नौकरी करने जा रहा है, घर बसाने नहीं।अरे अक्ल की दुश्मन सूटकेस की कैपेसिटी तो देख। जितना वेट ले जाना एलाऊ है उतना ही रख वर्ना जितने का सामान नहीं उससे ज़्यादा की पैनल्टी ठुक जाएगी। याद रख… डिग्री लेने से अक्ल नहीं आ जाती है, ज़िंदगी में अनुभव होना बहुत ज़रूरी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर