#लघुकथा
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■ रेल की खिड़की
【प्रणय प्रभात】
ट्रेन अपने गंतव्य हज़रत निज़ामुद्दीन के लिए ट्रेक पर दौड़ रही थी। स्लीपर श्रेणी की एक बोगी में आगरा से सवार दो परिवार आसमान सिर पर उठाए हुए थे। सारी किच-किच की वजह थी एक खिड़की। जिस पर जनरल श्रेणी वाले एक परिवार की महिला कब्ज़ा जमा चुकी थी। जबकि इसी केटेगरी के दूसरे परिवार की दो महिलाएं खिड़की पर अपना दावा करते हुए गला फाड़ कर चीख रही थीं।
कोहराम से बाक़ी यात्रियों का चैन हराम हो रहा था। यह झंझट मथुरा जंक्शन पहुंचने तक लगातार जारी थी। कुछ देर के बाद ट्रेन ने रेंगते हुए जैसे ही आगे के लिए गति पकड़ी। खिड़की से अंदर घुसे एक हाथ ने दबंग महिला का पर्स बाहर खींच लिया। पर्स वाले हाथ के साथ शातिर पल भर में चंपत हो चुका था। तात्कालिक तौर पर चीख-पुकार मचाने के बाद बेबस महिला खिड़की वाली सीट छोड़ फर्श पर पसरी निढाल सी दिखाई दे रही थी। जिसे सामने बैठी दोनों महिलाएं अपनी बातों से ढांढस बंधा रही थीं।
डिब्बे में घटना को लेकर कुछ देर की चिलल्पों और भड़ास टाइप प्रतिक्रियाओं के बाद अब अपार शांति थी। फ़साद की जड़ बनी खिड़की अब ख़ाली पड़ी थी। जिसके लिए दावेदारी अब खत्म हो चुकी थी। साबित हो चुका था कि आपदा और शांति आपस में सगी बहनें हैं।
★प्रणय प्रभात★
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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