#लघुकथा
#लघुकथा
■ हो गई मंशा पूरी।।
【प्रणय प्रभात】
बेहद अकड़ैल, अशिष्ट था साबूलाल। इकलौते सपूत के तौर पर मिली पुश्तैनी संपत्ति और सरकारी नौकरी ने बेहूदगी के करेले को नीम चढ़ा बना दिया था। सीधी-सादी पत्नी उसकी दृष्टि में सिर्फ एक दासी थी। ना इकलौते सपूत से लगाव, न बहू से सामान्य बर्ताव। ऐसे में आस-पडोस वाले उसकी नज़र में किस खेत की मूली थे? अपनी मां व करीबियों के साथ साबूलाल का अमर्यादित बर्ताव बेटे-बहू को भी नहीं सुहाता था। पर उनका मुंह अच्छी-खासी मिल्कियत की दमक हमेशा बन्द करा देती थी। दोनों अपने इकलौते बेटे को श्रवण कुमार बनाए रखने के लिए लड़कियों की तरह पाल रहे थे। न अडोस-पड़ोस से कोई वास्ता, न बाहरी दुनिया से कोई सरोकार। घरघुस्सू सपूत बाहरी दुनिया से विमुख था। दूसरी ओर साबूलाल मन ही मन बेहद खुश था। उसे इस बात का संतोष था कि जो बेटे-बहू दबी-ज़ुबान उसे असामाजिक मानते आए। वही उसके पोते को प्राणपण से उसका कलम बनाने में जुटे हुए हैं और वंश परम्परा सही दिशा की ओर जा रही है। दूसरी ओर बेटा-बहू अपनी उस अंजानी मूर्खता से पूरी तरह अंजान थे, जो एक दौर में साबूलाल के बाप हाबूलाल से हुई थी।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)