#लघुकथा-
#लघु_व्यंग्य_कथा-
■ बस दो सवाल और लोकतंत्र बहाल…।।
【प्रणय प्रभात】
मांगीलाल सुबह-सवेरे राफेल की तरह गड़गड़ा रहा था। लगातार बोलते हुए उसके मुंह से झाग निकल-निकल कर उड़ रहे थे। जुमलों की झड़ी सी लगी हुई थी। एक-एक काम उंगलियों पर गिनाया जा रहा था। पड़ौसी छतों और झरोखों से लाइव शो का लुत्फ़ ले रहे थे। बीवी कोने में सिर झुकाए बैठी थी। पौन दर्ज़न बच्चे इधर-उधर छुप-कर शेर की तरह दहाड़ते अपने बाप का नॉन-स्टॉप भाषण सुन रहे थे।
माहौल अपने पक्ष में मान कर मांगीलाल भरपूर जोश में था। मामला सब के बीच अपने पुरुषार्थ की खुली नुमाइश का जो था। शायद उसने ठान लिया था कि आज अपना एक-एक अहसान गिना कर ही मानेगा। यही वजह थी कि वो सब कुछ धड़ाधड़ उगल रहा था। बीवी की ख़ामोशी उसके हौसले को आसमान दे रही थी।
उसने बच्चों की पैदाइश और परवरिश से लेकर रोटी-पानी, पढ़ाई-लिखाई, दवा-दारू सब गिना दिए। मन था कि बक-बक पर लगाम लगाने को राज़ी नहीं था। देखते ही देखते मामला घर की मरम्मत, पानी-बिजली से लेकर रिश्ते-नातों पर होने वाले खर्चों तक आ गया। हद तो तब हुई जब उसने झोंक-झोंक में बीवी की डिमांड को भी रिमांड पर ले डाला। बस यही वक़्त था जब सारा पांसा पलट गया।
गुस्से में तमतमा कर उठ खड़ी हुई बीवी के सीधे-सपाट बोल और तीखे तेवरों ने मांगीलाल के सारे दावों की हवा निकाल दी। ब्रह्मोस मिसाइल की तरह गरज कर बरसी बीवी ने बस एक सवाल दागा कि परिवार का मुखिया होने के नाते ये सब वो नहीं करता तो क्या पड़ौसी करता? भड़कती बीवी ने कड़कती आवाज़ में यह बोलकर भी उसकी बोलती पर ढक्कन लगा दिया कि उसने जो भी किया, वो सब पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद को ठिकाने लगा कर किया। थोथी शान और दिखावे के लिए ज़माने भर से कर्ज़ा ले रखा है सो अलग। जो कभी न कभी बेचारी औलादों को ही चुकाना पड़ेगा। इसमें काहे की मर्दानगी और कैसा अहसान?
इन दो तीखे सवालों से मांगीलाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी। उसके खोखले दावों का फुकना उलाहने की सुई ने बर्स्ट कर दिया था। वो अपनी औक़ात को भांपते हुए हैसियत के पाजामे में फिर से फिट हो चुका था। उसे शायद यह सबक़ मिल गया था कि ना तो वो कोई नेता है और ना ही उसकी बीवी निरीह जनता, जो गूंगी रह कर बरसों-बरस इतना सब कुछ सुन सके और झेलती रहे। कुल मिलाकर तानाशाही वाले घर में लोकतंत्र की बहाली हो चुकी थी। इस क्लाइमेक्स से अड़ौसी-पड़ौसी भी खुश दिखाई दे रहे थे। खुशी का कारण था मांगीलाल की लू सरे-आम उतरना। वो भी उस मांगीलाल की, जो भारी अकड़ैल और फेंकू था और अपने आगे किसी को कुछ नहीं सनझता था।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)