#लघुकथा-
#लघुकथा-
■ नसीब अपना-अपना
【प्रणय प्रभात】
सड़क के इस छोर पर एक बड़ी सी बिल्डिंग के बेसमेंट में लगी सस्ते कपड़ों की बड़ी सी सेल। वहां चंद मिनट की छांट-बीन के बाद अपने दो बच्चों को मात्र ढाई-ढाई सौ रुपए के पेंट-शर्ट दिला कर बाहर आता निम्न-वर्गीय दंपत्ति। दोनों के चेहरों पर संतोष भरी ख़ुशी के भाव। साथ में कपड़ों की थैली लिए चलते बच्चों के चेहरों पर अनूठी सी चमक।
इसी सड़क के दूसरे छोर पर आसमान चूमते वातानकूलित मॉल से बाहर निकल कर पार्किंग की ओर बढ़ती एक हाई-फाई फैमिली। पति-पत्नि व डाइवर सहित शहज़ादे-शहज़ादी तक के हाथों में तीन घण्टे की क़वायद के बाद 75 हज़ार रुपए की पोशाकों के क़रीब डेढ़ दर्ज़न पेपर-बैग्स। दंपत्ति के चेहरों से झांकता खीझ भरा तनाव। औलादों के कुप्पे से फूले मुंह पर घनघोर रोष व असंतोष की परतें। यानि एक ही सड़क पर जीवन के दो अलग रंग, दो अलग रूप। आनंद और अवसाद को परिभाषित करते हुए। जिन्हें हम जैसों ने कौतुहल से देखा ऐसे ही विचरते हुए।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)