#लघुकथा
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■ प्राइवेसी ज़िंदाबाद
【प्रणय प्रभात】
“आपका काम सिर्फ़ बच्चों को पढ़ाना है। उनकी प्राइवेसी में टांग अड़ाना नहीं। आज बस समझा रहा हूँ। सुधर जाओ, वरना ठीक नहीं होगा।” सत्तारूढ़ दल का अध्यक्ष कलफ़दार कुर्ते की आस्तीन चढ़ा-चढ़ा कर दहाड़ रहा था। शाला के प्राचार्य व शिक्षकगण अपमान सा अनुभव करने के बाद भी मौन साधे खड़े थे।
मामला सहपाठी लड़कों के साथ आए दिन हंगामा करने वाली कुछ छात्राओं को दी गई समझाइश से जुड़ा था। जिनके साथ नियमानुसार रोक-टोक की शिकायत से अध्यक्ष भन्नाया हुआ था। आख़िर वो छात्राएं उसके अपने समाज की थीं। उसी समाज की जिसके धन-बल, बाहु-बल व रसूख के बलबूते उसे सियासी पद नसीब हुआ था। वो भी बिना किसी योग्यता, सिर्फ़ दबंगई की वजह से।
अकड़ व धौंस-धपट के इस बेहूदा सिलसिले पर विराम लगाया मोबाइल की रिंग ने। अध्यक्ष ने मोबाइल कान पर लगाया। दूसरी ओर से मिली सूचना से अध्यक्ष का तमतमाया हुआ लाल चेहरा पीला पड़ता और बुझता सा दिखाई दिया। वो तुरंत अपने पुछल्लों के साथ बाइक पर सवार हो कर कूच कर गया।
सभी के कौतुहल पर विराम शाम के एक स्थानीय अख़बार ने लगाया। पता चला कि अध्यक्ष की बेटी किसी सुनसान जगह पर सहपाठी के साथ प्राइवेसी के अधिकार का लाभ उठाते पकड़ी गई थी। वो भी दिन-दहाड़े, रंगे हाथ।
फ़िलहाल निजता (प्राइवेसी) के धुर समर्थक अध्यक्ष महोदय शर्म की सुरंग में भूमिगत हैं। जिनके चेले-चपाटे भी मुंह छिपाए भटक रहे हैं। अपमानित शिक्षक विपक्षियों की तरह मन ही मन प्राइवेसी ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। खुले आम न लगा पाने के कारण।
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