लघुकथा संतान
लघुकथा
संतान
इस बार गर्मी आयी थी अपनी माँ से मिलने…..
‘‘क्या हुआ माँ तुम तो लोहे की तरह तप रही हो तुम्हारा ताप तो दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है” तुम्हें कभी गुस्सा नहीं आता पापा पर?
“क्या करें बेटा यह तो नियति का नियम है जैसी तेरे पिता सूरज की मर्जी मैं तो धरती हूँ जिस हाल में वह रखना चाहें”
“पर माँ उनसे ताप कम करने को कहती क्यों नहीं ? तुम भी एक अबला की तरह सारे दुःख सह रही हो”
मैंने कहा तो था उनसे, पर वह आक्रोश में और भी तमतमा उठे तो मैंने भी खामोश रहना ही उचित समझा”|
तभी दरवाजे पर हलकी सी दस्तक हुई |दरवाज़ा गर्मी ने ही खोला|
अरे! बरसात बहन, आ गयी तू ? मेरा और माँ का तुझ से मिलने का बहुत मन कर रहा था| पापा का गुस्सा तो दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है चल, कोई बात नहीं तू आ गयी है तो पापा का गुस्सा भी शांत हो जायेगा अब, मुझ से ज्यादा तो तू लाडली है न उनकी …बरसात की आँखों से माँ से लिपट कर इतने आंसू निकले पूरी की पूरी धरा ही गीली हो गयी|
अब सूरज का आक्रोश भी थोड़ा कम हो गया था |
“माँ! मेरे आने से कहीं तुम परेशान तो नहीं हो?” बरसात ने कहा|
अरे! नहीं रे देख तो तेरे आने से मेरे चहरे पर कितनी रौनक आ गयी है| चारों ओर हरियाली ही हरियाली है”
“पर, माँ मेरे आने से नदियों में बाढ़ भी तो आ गयी है जगह जगह भूस्खलन हो रहे हैं पहाड़ों से पत्थर खिसक रहे हैं”
“नहीं रे यह सब तो प्रकृति का नियम है इसमें भला तेरा क्या दोष?”
अभी बरसात अपने घर गयी भी नहीं थी कि सर्दी ने दस्तक दे डाली——
दरवाज़ा बरसात ने ही खोला—-
“अरे सर्दी! तू बड़ी जल्दी आ गयी ?”
“हाँ बहन, मैं माँ की लाडली हूँ तो, मुझे भी तो आना ही था न माँ से मिलने”
“चल अब तू आ गयी है तो मैं चलती हूँ अब माँ की देखभाल करना तेरी जिम्मेवारी”
बरसात भी अपने घर चली गयी…..
बहुत देर से एक मौसम माँ से मिलने की प्रतीक्षा में था बड़ी देर से दरवाज़े के बाहर खड़ा था सोच रहा था कि माँ से मिले भी तो कैसे |
“लगता है माँ तुमने अपने इस नालायक बेटे को भुला ही दिया ?
“कौन है बेटा तू? मेरा अब तो मेरी आँखों ने भी काम करना बंद कर दिया है”
“माँ मैं हूँ तुम्हारा नालायक बेटा पतझड़”
अरे पतझड़ बेटा, आ—- माँ को तो उसकी हर संतान बहुत प्यारी होती है
और इतना कहते ही भावातिरेक में पतझड़ से पीले पत्ते ख़ुशी के मारे धरती पर झर झर झड़ने लगे …..
आभा सक्सेना दूनवी
अप्रकाशित एवं मौलिक