#लघुकथा / #विरक्त
#लघुकथा
■ दिखावे की विरक्ति
【प्रणय प्रभात】
बड़े दिनों बाद आज राह चलते चमन लाल जी मिल गए। दुआ सलाम के बाद शुरू हुआ हालचाल जानने का औपचारिक दौर। पूछा तो बोले- “बस, अब विरक्त हो गया हूँ भाई! क्या अपना, क्या पराया। बहुत कुछ देख लिया महामारी के दौर में।”
मेरे कानों को भा रही थी उनकी बात। मन को भी अच्छा लग रहा था यह समयानुकूल बदलाव और बर्ताव। तभी एक दीन-हीन महिला ने पास आकर उनके आगे हाथ पसार दिया। भद्रता व सम्पन्नता की वजह से उसकी उम्मीद का केंद्र भी वही थे शायद।
चमनलाल जी ने हिकारत भरे लहजे में हाथ झटकते हुए उसे आगे बढ़ने का इशारा किया। इसके बाद भी याचना बंद नहीं हुई तो वो झल्ला गए। महिला को डपटते हुए बोले- “ऐसे ही बाँटता रहूँगा तो तेरी तरह माँगता नज़र आऊँगा किसी रोज़। चल आगे बढ़ यहां से। मेरा पिंड छोड़।”
मैं हतप्रभ था विरक्ति के चोले में सजी आसक्ति का दीदार कर। हाथ जोड़ कर मुझे भी कूच करना मुनासिब लगा। बिल्कुल उस याचिका की तरह। चमन लाल जी भी अपनी कोठी की राह पकड़ चुके थे। जहां शायद नाती-पोते उनकी बाट जोह रहे थे। जलेबी और समोसों के चक्कर में।।
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●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)