लघुकथा कौमुदी ( समीक्षा )
समीक्ष्य कृति: लघुकथा कौमुदी
लेखिका: शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन ‘
प्रकाशक: साहित्यागार, चौड़ा रास्ता,जयपुर
संस्करण : प्रथम ( 2022)
मूल्य: ₹ 200/- (सजिल्द)
‘लघुकथा कौमुदी’ की लघुकथाओं पर चर्चा करने से पूर्व लघुकथा क्या है? को समझना आवश्यक है। जब लेखक किसी क्षण, घटना, परिस्थिति अथवा विचार को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करता है ,तो उसे लघुकथा कहा जाता है। इस विचार से लघुकथा का विषय कुछ भी हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि विषय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए उसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कैसे किया जाए? यह एक कला है, जो लेखक इस मर्म को समझ लेता है, वह एक ऐसी रचना देने में समर्थ बन जाता है, जिसे पाठक अपने दिल में बसा लेता है। वैसे लघुकथा कुछ-कुछ हिन्दी काव्य- विधा ‘क्षणिका’ की तरह ही है। चाहे, आकार की बात हो या फिर मारक क्षमता की।
‘लघुकथा कौमुदी’ में कुल 92 लघुकथाएँ हैं।इस कृति की भूमिका आदरणीय त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी ने लिखी है जो ये मानते हैं कि आज की लघुकथा में समाज की प्रचलित परंपराओं के साथ-साथ समाज एवं संस्कृति के अंतर्संबंध, भौतिकवाद, उपसंस्कृति, जातीय विषमता , नैतिक मूल्यों का क्षरण, उपभोक्तावाद, बिखरते पारिवारिक संबंध, स्त्री का बाजारीकरण, व्यक्तिवाद, नए आर्थिक समीकरण एवं स्त्री-पुरुष संबंध,संवेदनहीनता, प्रतिशोध,हिंसा, उत्कर्ष की छटपटाहट तथा सामाजिक सरोकार परिलक्षित होते हैं।
कृति की पहली लघुकथा ‘धानी-चूनर’ है जिसमें एक ससुर को अपनी विधवा बहू की शादी की चिंता सताती है क्योंकि उनके बाद उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। समाज में ज़िंदगी गुज़र-बसर करना उसके लिए कठिन हो जाएगा। इसलिए वे अपनी बहू से कहते हैं-” हम तो जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर हैं हमारे बाकी के दिन तो जैसे-तैसे कट जाएँगे, पर तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है। अपनी रंगहीन चूनर में रंग भर लो,बेटी।” यह संवाद न केवल एक पिता की अपनी बेटी के भविष्य की चिंता को रेखांकित करता है वरन समाज की मानसिकता में आए बदलाव की ओर संकेत करता है।लघुकथा में बहू को बेटी मानना और विधवा होने पर दूसरी शादी के लिए प्रेरित करना। एक समय था जब विधवा विवाह को लेकर लोगों को रुचि नहीं थी। न माँ-बाप दूसरी शादी कराने के लिए तैयार होते थे और न लोग किसी विधवा से शादी करना चाहते थे। इतना ही नहीं यह लघुकथा देश-प्रेम की भावना से भी ओत-प्रोत है। जब बहू अपने ससुर जी से कहती है-“बाबू जी! आपके बेटे ने अपनी वीरता से मातृभूमि को सतरंगी चूनर ओढ़ाई थी, उसी दिन मेरी चूनर भी धानी हो गई थी। मुझे उस रंग से अलग मत कीजिए, बाबू जी!”
‘सब्र’ एक ऐसी लघुकथा है जो एक गंभीर समस्या की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करती है।आज लोगों का पुस्तकों से प्रेम कम हो गया है।इसके लिए मात्र पाठक ही जिम्मेदार नहीं है।कुछ साहित्य की अपनी कमियाँ भी हैं।जब पाठक को कुछ नया नहीं मिलेगा तो वह किस उद्देश्य से पुस्तकों से लगाव रखेगा।पर इसके लिए मात्र लेखक ही जिम्मेदार नहीं है; जीवन में बढ़ती यांत्रिकता भी हमें पुस्तकों से विमुख बना रही है। “कभी ऐसे दिन थे जब हम दिलों पर राज करते थे।” आज जेब में रखा मोबाइल दिल पर राज करता है, पुस्तक नहीं।
‘मुर्दे’ लघुकथा आज के मानव की संवेदनहीनता को दर्शाती है।आज कोई किसी की मदद करने के लिए तैयार ही नहीं होता। सभी जीवन की आपाधापी में इस कदर खोए रहते हैं कि दूसरों की समस्याओं और कठिनाइयों की तरफ ध्यान ही नहीं जाता। “बहन! मुर्दों से कैसी शिकायत।” (पृष्ठ-24) एक ऐसा संवाद है जो समाज की सोच में आए नकारात्मक बदलाव की ओर इशारा करता है।
‘भविष्य’ लघुकथा में लेखिका ने स्त्री जीवन की ऐसी सच्चाई को सामने रखा है जो उसे त्याग, करुणा और सहानुभूति की प्रतिमूर्ति बना देती है। “अब मेरा परिवार ही, मेरा भविष्य है।”(पृष्ठ-48) एक ऐसी बात है जो शादी के बाद एक महिला से समाज अपेक्षा रखता है। यदि एक स्त्री अपने सपनों और भविष्य से परिवार के लिए समझौता करती है तो परिवार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उसे यथोचित सम्मान दे।
आज की युवा पीढ़ी भटकाव की ओर अग्रसर है।उसे अपने धार्मिक ग्रंथों और देवी-देवताओं के बारे में मात्र सतही ज्ञान है, वह भी ‘व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी’ से हासिल किया हुआ। ऐसे में युवा पीढ़ी उनके पात्रों और चरित्रों के गहन मर्म से परिचित नहीं हो पाती है जो पतन का कारण बन जाता है। इतना ही नहीं वे अपने कुकर्मों को उन पात्रों और चरित्रों के आधार पर सही ठहराने का प्रयास करने लगते हैं। “आड़” एक ऐसी ही लघुकथा है जिसमें लड़की अपने लिव-इन-रिलेशन को राधा-कृष्ण से जोड़कर सही ठहराने की कोशिश करती है।” ओह ! मम्मी, आजकल लड़के-लड़की सब बराबर हैं, रही बात, साथ रहने की तो राधा-कृष्ण भी तो रहते थे, उनको दुनिया पूजती है।”( पृष्ठ-53)
‘लव जिहाद’ आज के समाज की एक विकट समस्या है। ‘गिरगिट’ लघुकथा में शकुन जी ने बड़े ही संतुलित रूप में इस समस्या को उठाया है।भोली-भाली लड़कियों को प्यार के जाल में फंसाकर शादी करना और फिर अपने धर्म के रीति-रिवाजों को मानने के लिए बाध्य करना एक आम बात है लेकिन शादी से पूर्व इस तरह का कोई दबाव न बनाने की बात की जाती है। “सलीम, मुझे नाॅनवेज बनाने की, मस्जिद जाने की कहता है, उसकी बात नहीं मानती हूँ तो मारपीट करने लगता है।”
“गलती तो मेरी ही थी,मैं भूल गई थी,गिरगिट रंग बदलना नहीं छोड़ सकता।” ( पृष्ठ-68)
‘भूख’ एक ऐसी लघुकथा है जो हमें बरबस ही यह सोचने के लिए विवश करती है कि भौतिकता की जिस अंधी दौड़ में व्यक्ति शामिल हो गया है, वह कहाँ जाकर समाप्त होगी? प्राकृतिक संपदाओं का अंधाधुंध दोहन प्रकृति के स्वरूप को विकृत कर रहा है। ‘भूख’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें एक बच्चा अपने पिता के साथ ,जन्म दिन पर जंगल घूमने जाता है और पुस्तकों में पढ़े विवरण के अनुसार जंगल न पाकर एक स्वाभाविक सा प्रश्न अपने पिता जी करता है- यहाँ न तो विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधे हैं और न जानवर,ये कैसा जंगल है?
शकुन जी ने सभी लघुकथाएँ संवाद शैली में लिखी हैं।प्रत्येक लघुकथा अपने-आप में एक संदेशपूर्ण रचना है परंतु पुस्तक की समीक्षा लिखते समय हरेक रचना की विशेषताओं उद्धृत करना संभव नहीं होता। मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों ‘केवल मनोरंजन न कवि का धर्म होना चाहिए। उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए। अब कविता हो या लघुकथा, समाज को एक संदेश और सही दिशा देने वाला होना ही चाहिए तभी साहित्य-कर्म सार्थक और सफल माना जा सकता है।
कृति की अधिकांश कहानियाँ नारी विमर्श से जुड़ी हुई हैं। कहीं वे उसकी समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं तो कहीं वे उसके अंतर्द्वंद्व को रेखांकित करती हैं।यथार्थ की भावभूमि पर आधारित इस कृति की लघुकथाओं की भाषा सहज-सरल और बोधगम्य होने के कारण पाठकों को प्रभावित करने में सक्षम हैं। कुछ लघुकथाओं में जाने-अनजाने में वह और वे सर्वनाम के लिए ‘वो’ का प्रयोग किया गया है जो उचित नहीं कहा जा सकता।
सुंदर एवं आकर्षक मुद्रण से युक्त ‘लघुकथा कौमुदी’ एक पठनीय एवं संग्रहणीय कृति है। इस कृति के माध्यम से लेखिका एक लघुकथाकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो, ऐसी मेरी कामना है।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की (हरिद्वार)