लघुकथा- “कैंसर” डॉ तबस्सुम जहां
लघुकथा- “कैंसर”
डॉ तबस्सुम जहां
भोला आज अकेला रह गया था। रह-रह कर बिशनु की याद आ रही थी। एक ही तो दोस्त था उसका। देवी मैया ने उसे भी छीन लिया। सुबह तड़के ही तो भोला ने उसकी मिट्टी पार लगाई है। बेचारा काफ़ी दिनों से बीमार था। गला तो फूल के बरसाती मेंढक-सा हो गया था उसका। पड़ा रहा था कितने ही दिन सरकारी हस्पताल के एक कोने में। बड़े डॉक्टर ने बताया कि उसे मुँह और गले का कैंसर था। कैंसर! नाम से भोला के झुरझुरी-सी दौड़ गयी। कैंसर होता भी क्यों न वाके। ससुर तमाखू बहुत खाता था। चबेने कि तरह चाबता ही रहता पूरे दिन। सहसा उसकी तन्द्रा भंग हुई। भक्क ! तमाखू से भी कोई मरता है। उसने खीसे से गुटखे का पैकेट निकाला। हाथ मे लेकर उसे देर तक देखता रहा। उसने आज पहली बार रैपर की फोटो ध्यान से देखी। एक कैंसर ग्रस्त व्यक्ति का सड़ा गला मुंह अब उसे बैचेन करने लगा। नहीं, यह तो बिशनु है। हां , वही तो है। उसे फ़ोटो में बिशनु का अक्स नज़र आने लगा। उसका एक मात्र दोस्त जिसे तमाखू से हुए कैंसर ने छीन लिया था। अब भोला के हाथ कांपने लगे। ऐसा लगा कि वह अभी गुटखे को झटककर दूर फ़ेंक देगा। उसने पैकेट को एक नज़र देखा। रैपर फाड़ा और चबेने की तरह मुंह मे भर कर खुद से बोला- भक्क! तमाखू से भी कोई मरता है।