लघुकथा – “कनेर के फूल”
लघुकथा- “कनेर के फूल ”
“तुझे पता है सुमन पहले ज़माने में कनेर के फूल पैसों के बदले चलते थे। इन फूलों से जो चाहे ख़रीद सकते थे।” ग्यारह वर्षीय कुसुम ने पार्क में कनेर के बिखरे फूलों को चुनते हुए छोटी बहन सुमन से कहा।
“पर दीदी, कैसे पता चलता था कि कौन सा फूल कितने का है।” सुमन ने अचरज से पूछा।
‘अरे पागल। देख यह फूल ज़्यादा खिल रहा है यानी ये दो रूपए का है। यह पीला वाला थोड़ा कम यह एक रूपए का होगा।’ कुसुम ने एक-एक फूल को पकड़कर उसमे फूंक मारी। फूंक से कनेर की पंखुड़ियां बाजे की तरह और खिल उठतीं। सुमन ने भी उत्सुकता वश एक फूल में हवा भरी, फूल नही खिला।
“दीदी ये तो नही खिला।’
“खोटा होगा। छोड़ उसे।” सुमन ने जल्द ही अपनी झोली में बीस बाईस रुपए के कनेर के फूल भर लिए। काश, कितना अच्छा होता अगर पहला ज़माना होता वह अभी इन सबकी टॉफी चाकलेट खरीद लेती। उसे अपने आप पर गुस्सा आने लगा। वह पहले ज़माने में क्यों नही हुई । उसे बताया गया था। तीन ज़माने हैं। एक वह जिसमे लोग कपड़े नही पहनते थे। उन्हें कपड़े दो तब भी उतार कर फेंक देते थे। दूसरा, जिसमे कनेर के फूल पैसों के बदले चलते थे। तीसरा ज़माना, जिसमे कनेर के फूल नही चलते। उसे यह गूढ़ ज्ञान उसकी बहन से मिला था। “दीदी ने कहा है तो सच होगा। झूठ हो ही नही सकता। काले बादल घिरने पर दीदी कहती हैं, देख सुमन बारिश होगी। और सच मे बारिश हो जाती। सुमन को याद आया एक बार पादरी जोसेफ पार्क में खेलते हुए बच्चों को एक एक टॉफी देकर गए। उनके जाने पर दीदी ने कहा कोई टॉफी मत खाना। यह कड़वी है। ज़हर मिला है। कहते हुए उन्होंने अपने मुंह से अधघुली टॉफी निकाल कर उसके सामने चमकाई और गप्प से पुनः मुँह में रख ली थी। दीदी बहुत समझदार हैं। वह सब जानती हैं। सहसा एक हवा का पुरकशिश झोंका आया। कनेर के पीले संतरी अनेक फूल घास की फर्श पर बिखर पड़े। फ़िज़ा उनकी महक से सरोबार हो उठी। सुमन लपक कर फूलों को चुनने लगी। वह हर फूल में फूंक मारती। उनके मूल्य का अंदाज़ा लगाती। “यह वाला ज़्यादा खिला है यह पांच रुपए का है। यह दो का। यह एक का…।”