लघुकथा -आत्मसम्मान
लघुकथा -आत्मसम्मान
रोजाना सुबह-शाम बस सुबोध चेतना से लड़ाई की फिराक में रहता था। विवाह के दस वर्ष हो गए पर अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति को वो बदल नहीं पाया। घरवालों ने तंग आकर उससे बोलना बंद कर दिया पर बीवी बेचारी क्या करे?
आज फिर सुबह- सुबह नाश्ते की टेबल पर बुरा सा मुॅंह बनाया और नाश्ता फैंक दिया। चेतना रो पड़ी।
उसने कहा -क्या कमी है सब ठीक तो है!
ये…ये नाश्ता है? “गाय -भैंस का चारा, हरा कबाब ! हुंअअ ढंग का खाना बनाना सीखो!”सुबोध चिल्लाने लगा।
“आप तो रोज ही हर चीज में कमी निकालते हैं।” चेतना धीरे से बोल पड़ी। इतना सुनते ही सुबोध ने उसे चांटा मार दिया।
ज़बान मत लड़ाओ मुझसे,गंवार औरत! सुबोध ने गुस्से में कहा।
लंच बॉक्स छोड़ कर वो आफिस चला गया। दिन-भर चेतना रोती रही कैसे संभाले अपने- आप को। रोज़ -रोज़ की लड़ाई ई और कुछ कहो तो मारने पर उतारू हो जाता था सुबोध।
पर अब नहीं। बहुत सह लिया उठकर आलमारी खोली देखा
सामने माता -पिता की तस्वीर सजी थी उन्हें देखकर रो पड़ी।
इतने सालों से बुढ़े माता -पिता को कुछ नहीं बताया ,सोचा उन्हें दुःख पहुंचेगा इकलौती बिटिया का दुःख जानकर।
पर अब और नहीं, मैं वापस जाऊंगी अपने माता-पिता के पास। मेरा भी वजूद है मैं अपना आत्म-सम्मान रोज़ इस तरह मार और डांट खाकर नहीं गंवाना चाहती। तुरंत अपने कुछ कपड़े अटैची में जमाए ,घर का ताला बंद करके चाबी पड़ोस में अपने ससुराल वालों को सौंपी और मायके के लिए बस में बैठ गई। मोबाइल पर सुबोध को फोन लगाया उसने कहा – जा रही हूॅं अपने मायके जब अपना स्वभाव सही सुधार लो तो लेने आ जाना और मोबाइल स्वीच ऑफ कर दिया।
योगमाया शर्मा
कोटा राजस्थान