#लघुकथा / आख़िरकार…
#लघुकथा
■ सूखे खेत छा गए बदरा…
【प्रणय प्रभात】
मिस्टर एबी का बेटा 32 साल का हो चुका था। उसके लिए तलाश थी एक सर्वगुण-सम्पन्न सुंदरी की। तलाश बीते छह साल से पूरी होने का नाम नहीं ले रही थी। वजह थी कुंडली के दर्ज़न भर कमरों में धमाचौकड़ी मचाते पौन दर्ज़न ग्रह। जो गृहस्थी आबाद न होने देने की क़सम सी खाए बैठे थे। रही-सही क़सर समय के साथ बढ़ती हुई उम्र पूरी किए दे रही थी। सूरत-शक़्ल और रंग-रूप पर उल्टा असर डालते हुए। तमाम टोने-टोटके लगातार निष्फल बने हुए थे।
अमूमन यही हाल मिस्टर सीडी का था। जिन्हें अपनी 30 साल की राजकुमारी के लिए बीते 5 साल से एक अदद राजकुमार की खोज थी। दर्ज़न जोड़ी जूतियां घिसने के बाद भी नतीज़ा सिफर था। भारी-भरकम ग्रह यहां भी एक प्रपंच सा रचे हुए थे। नतीज़तन पापा की परी के पर अब परवाज़ की ताक़त खोते जा रहे थे। यह और बात है कि दिमाग़ न मां-बाप के ठिकाने आ रहे थे, न बेटी के। तरह-तरह के व्रत-उपवास के बाद भी देवगणों के जागने के कोई आसार नहीं बन रहे थे।
मज़े की बात यह थी कि एबी और सीडी दंपत्ति एक ही शहर के निवासी थे। संयोगवश एक ही समाज के। आपस में अच्छे से परिचित और लगभग समकक्ष भी। असली मुसीबत स्तर की समानता के बावजूद सोच की समानता को लेकर थी। सोच वही, अकड़ और आत्म-मुग्धता से भरपूर। एक-दूसरे को कुछ न समझने वाली। समाज के लोग संकेतों में दोनों परिवारों के मधुर-मिलन की कोशिश कर निराश हो चुके थे, क्योंकि दोनों खानदान एक-दूसरे में मीन-मेख निकालने में पारंगत थे।
वक़्त अपनी रफ़्तार से गुज़र रहा था। मिस्टर एबी के सपूत ने 40वें साल में पदार्पण कर लिया था। श्रीमान एबी कोरोना की भेंट चढ़ चुके थे। इधर श्रीमती सीडी 38वें साल में चल रही अपनी लाडली के हाथ पीले न होने के ग़म में सिधार चुकी थीं। आख़िरकार श्रीमती एबी और श्रीमान सीडी की अकड़ के पिस्सू एक रोज़ झड़ ही गए। पता चला कि उन्होंने अधेड़ दिखाई देतीं औलादों की दीमक लगी कुंडली बला-ऐ-ताक रखते हुए देवता जगाने का मन बना लिया। अब दोनों देव-उठान पर परिणय-बंधन में बंधने जा रहे हैं। वो भी उस उम्र में, जब उनके बीच दांपत्य के नाम पर कुछ नहीं बचा है। एकाकी रहने से मुक्ति पा लेने के संतोष के सिवाय। पारिवारिक अड़ियलपन का टेसू बैरंग हो चुका है, मगर काफ़ी देर से। बहुत कुछ छीन और निगल लेने के बाद।।
■प्रणय प्रभात■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)