लंका दहन (निश्चल छंद)
लंका दहन
निश्चल छंद 16/7 यति
अंत में गुरू लघु
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गर्जन करके पूरे स्वर में, जै श्रीराम।
बोले हनुमत बढे गगन तक ,बल के धाम ।
कूद कूद कर लंका भर में, फैली आग।
हाय हाय के साथ हो रही, भागम-भाग।
चारों ओर आग की लपटें, हा हा कार ।
पानी पानी की चौतरफा, मची पुकार।
जलता नगर दशानन को सब, देते दोष।
और नारियाँ रहीं उजागर, उसको कोस ।
जो राजा ने पाप किया है,
निकला आज।
गिरी निरीह निबल जनता पर,
ऐसी गाज।
बंदर समझ रहे जो इसको,
वे नादान ।
उनके जैसा कहीं न जग में ,मूर्ख समान।
पानी भी जल रहा आग में, ज्यों घी तेल ।
खेल रही है आज प्रकृति भी,
उल्टा खेल।
तन बंदर का दिखने भर को,
है यह काल ।
लाल रंग का ये यमराजा,करे विहाल ।
तपसी हाथों बहिन कटाई ,जाकर नाक।
रावण की तो मिटी उसी दिन, जग में धाक।
बीज पाप का ऐसा बोया, निकली शाख।
अंदर आकर बंदर कर दी,लंका राख।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
1/2/23