रौशन गलियों का अंधेरा
“अरी ओ चंचल…! सुन काहे नहीं रही हो ? कब से गला फाड़े जा रहे हैं हम और तुम हो कि अनठा के चुप बैठी हो। आ कर खा लो ना।” साठ वर्षीया रमा दस साल की नातिन चंचल को कब से खाने के लिए आवाज लगा रही है। लेकिन चंचल है कि जिद्द ठान कर बैठ गई है, नहीं खाना है तो बस नहीं खाना है।
“ऐ बिटिया! अब इस बुढ़ापे में हमको काहे सता रही है री ? चल ना… खा लें हम दोनों।” दरवाजे पर आम गाछ के नीचे मुँह फुलाकर बैठी चंचल के पास आकर बैठती हुई नानी खुशामद करती है।
“नहीं, हमको भूख नहीं है। तुम खा लो नानी।” चंचल मुँह फेर लेती है।
“ऐसा भी हुआ है कभी ? तुम भूखी रहो और हम खा लें ?” नानी उसे पुचकारती है।
“तो फिर मान लो ना मेरी बात। मम्मी से बोलो, यहाँ आए।”
“अच्छा! बोलेंगे हम। चल अब खा ले।”
“दस दिन से तो यही बोल कर बहला रही हो लेकिन मम्मी से नहीं कहती हो। अभी फोन लगाओ और हमसे बात कराओ। हम खुद ही बोलेंगे आने के लिए। बोलेंगे कि यहीं कोई काम कर ले। कोई जरूरत नहीं शहर में काम करने की। हमको यहाँ छोड़ कर चली जाती है और तीन-चार महीने में एक बार आती है, वो भी एक दिन के लिए। ऐसा भी होता है क्या ? सबकी माँ तो साथ में रहती है। लगाओ ना फोन…।” चंचल मन की सारी भड़ास निकालने लगती है।
“तुम जरा भी नहीं समझती हो बिटिया। मम्मी काम पर होगी न अभी। अभी फोन करेंगे तो उसका मालिक खूब बिगड़ेगा और पैसा भी काट लेगा। फिर तेरे स्कूल की फीस जमा न हो पाएगी इस महीने की। जब फुर्सत होगी, तब वो खुद ही करेगी फोन।” नानी उसे समझाने की कोशिश करती है।
“ठीक है, नहीं करो। अब उससे बात ही नहीं करनी है हमको कभी। जब मन होता है बात करने की तो हम कर ही नहीं सकते. वो जब भी करेगी तो चार बजे भोर में ही करेगी। नींद में होते हैं तब हम…आँख भी नहीं खुलती है ठीक से, तो बात कैसे कर पाएंगे ? तुम ही बताओ नानी…ये क्या बात हुई ?”
“अच्छा अच्छा! ठीक है। इस बार आने दो उसे, जाने ही नहीं देंगे।” नानी ने उसका समर्थन किया।
“हाँ! अब यहीं रहना पड़ेगा उसे हमारे साथ। चलो नानी! अब खा लेते हैं… भूख लगी है जोरों की।”
“हाँ हाँ! मेरी लाडो रानी! बारह बज गए हैं…भूख तो लगेगी ही। चल…।”
चंचल उछलती कूदती नानी के साथ चली।
दोनों साथ-साथ खाने बैठी। चंचल भूख के मारे दनादन दाल-भात का कौर मुँह में ठूँसती जा रही है।
“ओह हो! शांति से खा ना। ऐसे खायेगी तो हिचकी आ जाएगी.” नानी टोकती है।
लेकिन वह कहाँ सुनने वाली। मुँह में दाल-भात चुपड़-चुपड़ के खाती जा रही है।
“आने दो हिचकी। पानी है, पी लेंगे।” वह लापरवाही से कहती है।
नानी मुस्कुराती है और उसे देखती हुई कहीं खो जाती है।
बेचारी नन्ही-सी जान! इसे क्या पता कि इसकी मम्मी इसके लिए कैसे कलेजे पर पत्थर रखकर इससे दूर रह रही है। आह! दिसंबर की वह सर्द रात… जब वह आठ दिन की इस परी को हमारी झोली में डाल गई थी।
पेट दर्द की न जाने कैसी बीमारी लगी थी हमको। गाँव-घर के वैद्य-हकीम से दवा-दारू करके हार गये थे लेकिन पेट दर्द जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। रह-रह कर दर्द उभर आता। तो कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने कहा शहर में अच्छे डाक्टर से दिखा लो। दिखा तो लेते लेकिन अकेले कैसे जाते। न पति, न कोई संतान। बाप की एकलौती बेटी थे हम। माँ बचपन में ही गुजर गई थी। हमारी शादी के दो साल ही तो हुए थे और कोई बच्चा भी नहीं हुआ था। किस्मत की ऐसी मार पड़ी कि तीसरे साल पति को जानलेवा रोग खा गया। बापू भी बूढ़े होकर एक दिन परलोक सिधार गये। रह गये हम अकेले। दूसरी शादी भी नहीं किये, मन ही उचट गया था। हाथ में हुनर था सिलाई-बुनाई का तो कुछ काम मिल जाता और घर के पिछवाड़े तीन कट्ठा जमीन में साग-सब्जी उगा लेते, जो आमदनी होती उसी से गुजर-बसर होता रहा।
पेट दर्द था कि अब असहनीय होने लगा था। बड़ी खुशामद के बाद पड़ोसी सहदेव का बेटा मुरलिया तैयार हुआ साथ में शहर जाने के लिए। शहर तो चले गए लेकिन मुरलिया के मन में न जाने कौन-सा खोट पैदा हुआ कि हमें डाक्टर के यहाँ छोड़ कर बहाने से वहाँ से भाग निकला।
ऊ तो संयोग अच्छा था कि हम पैसा उसको नहीं थमाये थे, वरना…।
खैर! हम डाक्टर को दिखा तो लिये लेकिन जब पुर्जा पर जाँच-पड़ताल के लिए कुछ लिख कर दिया तो तो अक्क-बक्क कुछ न सूझ रहा था। वो तो भला हो उस कमपोंडर बाबू का, सब करवा दिया।
रिपोट चार बजे के बाद मिलती तो वहीं बरामदे पर बैठ कर रिपोट और मुरलिया दोनों का इंतजार करने लगे हम। सोचे कि किसी काम से इधर-उधर गया होगा, आ जाएगा। लेकिन ये क्या ? चार बज गए, रिपोट भी आ गई लेकिन मुरलिया का कोई अता-पता नहीं। मन में चिंता हुई कि ठंड का मौसम है, चार बज गए मतलब अब कुछ ही देर में अंधेरा घिर आएगा। घर कैसे जाएँगे ?
तभी कम्पोंडर बाबू ने रिपोट लेकर बुलाया, तो हम झोला उठाए चल दिए। डाक्टर साहब ने बतलाया, “जाँच में कुछ गंभीर नहीं निकला है। ठीक हो जाओगी अम्मा! चिंता की कोई बात नहीं। ये सब दवाईयां ले लेना।” डाक्टर ने पुर्जा थमाया।
मन को शांति तो मिली। पास ही दवाई की दुकान थी, वहीं से दवाई ले लिये। अब घर जाने की चिंता होने लगी। बस अड्डा किधर है ? किस बस पर बैठें ? इतनी देर हो गई, अब बस खुलेगी भी कि नहीं ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। कुछ ही देर में अंधेरा घिर आया तो हम वहीं बरामदे पर एक कोने में झोला से चादर निकाले और ओढ़ कर यह सोचकर बैठ गये कि रात यहीं गुजार लेते हैं किसी तरह। सुबह कुछ उपाय सोचेंगे।
घर से लायी हुई रोटी और आलू का भुजिया रखा ही था। भूख भी लग रही थी तो निकाल कर खा लिये। आठ बजे लगभग मरीजों की आवाजाही खत्म हो गई। तभी गाड बाबू आकर हमसे कड़क कर बोला कि “ऐ माई ! इधर सब बंद होगा अब। चलो निकलो यहाँ से।”
हमको तो आकाश-पाताल सूझने लगा। कहाँ जाएँ ? क्या करें ?
“हो बाबू! तनी रात भर रहने दीजिए न। अकेले हैं और घर भी दूर है। सुबह सवेरे-सवेरे निकल जाएंगे।” कितना गिड़गिड़ाये, लेकिन पता नहीं किस मिट्टी का बना था वो। अड़ा रहा अपनी बात पर।
क्या करते हम भी। झोला उठाकर ठिठुरते हुए सड़क पर निकल पड़े। भटकते रहे घंटों, कहीं कोई आसरा न मिला। ठंड भी इतनी कि सब लोग बाग घर में दुबके थे। जहाँ-तहाँ कोने में आवारा कुत्ता रह-रह कर कुकिया रहा था। गाड़ियों की आवाजाही एकदम कम थी… बीच-बीच में बड़ी-बड़ी ट्रकें सर्रर… से गुजर जाती तो कलेजा धक् से रह जाता। चलते-चलते पाँव थक गया तो एक मकान के छज्जे के नीचे सीढ़ी पर रात गुजारने की सोच कर झोला रखे ही तो थे कि दो-चार कुत्ता एक साथ टूट पड़ा। सरपट भागे वहाँ से भी। चारों तरफ रोशनी तो खूब थी भका-भक्क, लेकिन हमारी दुनिया घुप्प अंधेरे से घिरी थी।
थकान से पाँव इतना भारी कि उठ न रहे थे फिर भी चल रहे थे।
तभी अचानक से किसी ने जोर से अपनी तरफ खींचा और धर्रर…से एक ट्रक गुजरी। कुछ देर होश ही न रहा हमको। जब होश आया तो देखा, एक गाछ के नीचे हम लेटे हैं और 22-23 साल की एक खूबसूरत युवती जिसके गोद में नवजात बच्चा है, वो मेरा सिर सहला रही है। सब समझ में आ गया, ये अगर हमको नहीं खींचती तो ट्रक हमें परलोक पहुँचा देता।
“ऐसे बेखबर चलती हो? पता भी है रात के बारह बज रहे हैं, ऊपर से इतनी ठंड। और तो और आँख बंद करके सड़क पर चलती जा रही हो। अभी ट्रक के नीचे आती और सारा किस्सा खतम…।” वह युवती हम पर बरसती जा रही थी लेकिन उसका बरसना मन को सुकून दे रहा था।
क्षण भर में हमारे बीच न जाने कौन-सा डोर बंध गया कि हमने एक-दूसरे के सामने हृदय खोल के रख दिया। उसके दर्द को जानकर कलेजा कांप गया मेरा। उसका नाम मनीषा था। उसे उसकी सौतेली माँ ने चौदह साल की उम्र में ही एक दलाल के हाथों बेच दिया था और बात फैला दी कि वह किसी के साथ भाग गई। दलाल ने उसे एक कोठे पर पहुँचा दिया और उसका नाम मोहिनी रख दिया गया। वह न चाहते हुए भी मालिक के इशारे पर नाचती। हर रात अलग-अलग मर्द उसके जिस्म से खेलते। कई बार भागने की भी कोशिश की लेकिन हर बार वह पकड़ा जाती और फिर दुगुनी यातना सहती। एक बार तो वह घर भी पहुंच गई थी लेकिन सबने अपनाने से इंकार कर दिया। खूब जली कटी सुनाया उसकी सौतेली माँ के साथ-साथ गाँव भर के लोगों ने। समंदर भर का दर्द लेकर वह लौट आई फिर उसी अंधेरी गली में। फिर कभी उसने भागने का नहीं सोचा।
आठ दिन पहले ही उसने बेटी को जन्म दिया है। पेट से तो वह पहले भी दो बार रही थी लेकिन जैसे ही पता चलता कि पेट में लड़का है, फौरन गर्भ गिरा दिया जाता। क्योंकि लड़कों के जिस्म से कमाई नहीं होती न। इस बार लड़की थी तो उसका मालिक खुश था कि अगली माल आने वाली है।
लेकिन मोहिनी हर हाल अपनी बच्ची को इस दलदल से, इस अंधेरी दुनिया से बाहर निकालना चाहती थी। यही सोचकर वह आज छिपते-छिपाते बाहर निकली थी कि आज वह या तो भाग जाएगी कहीं या फिर बेटी के साथ नदी में कूद कर जान दे देगी।
“तुम जान देने की बात कैसे कर सकती हो बेटी ? जबकि तुमने हमारी जान बचाई है। नहीं-नहीं तुम ऐसा नहीं कर सकती।” हमें जान देने की बात तनिक भी पसंद न आई।
“तो फिर हम क्या करें अम्मा ? तुम ही बताओ भाग कर कहाँ जाएँ ? लोग न हमें चैन से जीने देंगे, न बिटिया को। ऐसी जिल्लत भरी जिंदगी से अच्छा है हम मर ही जाएँ।”
पत्तों से टप-टप गिरती ओस की बूंदों के बीच मोहिनी की आँखों से अश्रु धारा फूट पड़ी और ‘अम्मा’ शब्द सुनकर हमारे सीने में ममता की धार।
“तुमने हमारी जान बचाई है तो हमारी जिंदगी तुम्हारी हुई न। अभी-अभी तुमने अम्मा बुलाया हमें और हमने तुम्हें बेटी… है कि नहीं? तो एक माँ के रहते बेटी को किस बात की चिंता ? हमारी बेटी और नातिन हमारे साथ रहेगी, हमारे घर।” नन्ही-सी बच्ची को चादर में लपेट कर सीने से लगा लिया था हमने।
“नहीं अम्मा। हम तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं डाल सकते।” मोहिनी एकदम इंकार कर रही थी।
“कैसी मुसीबत? बच्चे माँ के लिए मुसीबत नहीं, सौभाग्य होते हैं। और जब किस्मत ने हमें मिलाया है तो कुछ सोच-समझकर ही मिलाया होगा ना। तू चल हमारे साथ। हमारा गाँव शहर से दूर भी है, कोई खोज भी नहीं पाएगा।” खूब मनुहार किया मैंने।
लेकिन वह थी कि मान ही नहीं रही थी। सुबक-सुबक कर कहने लगी, “अम्मा! तुझे कुछ नहीं पता… नहीं पता कि इन चकाचौंध वाली गलियों के सरदार की पहुँच कितनी दूर तक है। बड़े-बड़े नेता, मंत्री, अधिकारी और भी न जाने कितने रसूखदारों को अपनी सेवा देते हैं ये। ऐसी कई हस्तियों के हाथों लुट चुके हैं हम भी। मोहिनी का नाम और चेहरा सबका जान-पहचाना है। फ़ौरन ढूँढ़ लेंगे ये भेड़िये। अम्मा…! अब इस नरक के आदी हो चुके हैं हम। अब तक कोई मलाल नहीं था लेकिन अब इस नन्ही जान के लिए कलेजा हिलकता है अम्मा। इसे किसी भी कीमत पर इस नरक में न झोंकने देंगे उस जालिम को। चाहे जान ही क्यों न देनी पड़े।”
हम असमंजस में पड़ गये थे। एक तो वह बेटी को बचाना भी चाहती थी, दूसरे हमारे साथ चलने को भी तैयार न थी। हमारे अंदर की माँ उसे अकेले छोड़ना भी नहीं चाह रही थी।
“…तो क्या सोचा है तुमने ?” मुझसे रहा नहीं गया।
“अम्मा! एक एहसान करेगी मुझ पर ?” वह कातर स्वर में बोली।
“हम कुछ भी करेंगे बिटिया, तू बोल तो सही।” हमने आश्वासन दिया तो वह बोली,
“तू इसे रख ले अपने पास। पाल ले इसे। हम खर्च भेजते रहेंगे। खूब पढ़ाना-लिखाना और हाँ… हम कभी-कभी मिलने भी आते रहेंगे, सबसे छुप कर। लेकिन इसे मेरी सच्चाई मत बताना कभी, वरना नफरत हो जाएगी इसे। घिन्न पैदा हो जाएगी इसके मन में। पढ़-लिख कर समझदार हो जाएगी तो सही समय पर सब सच बता देंगे। बोल अम्मा! तू करेगी ये एहसान मुझ पर ?
“आह! बिटिया। आ… इधर आ तू।” गले लगा लिया हमने उसे।
“अम्मा ! तुम्हारे गाँव की तरफ जाने वाली पहली बस पाँच बजे सुबह खुलती है। बैठा देंगे उस पर, तुम चली जाना। अभी तो दो ही बज रहे हैं और ठंड भी इतनी है। चलो कोई कोने वाली जगह ढूंढ लें ताकि कम से कम ठंडी हवा से तो राहत मिले। नींद तो वैसे भी नहीं आएगी।” उसने मेरा झोला उठाया और चल पड़ी।
बच्ची को एकदम ढांप कर पेट में छुपा हम भी साथ हो लिए।
थोड़ी दूर चलने पर बस अड्डा आ गया। यात्री ठहराव के लिए बने हालनुमा बरामदे पर एक खाली कोने में हमने रात काटी। वह रात भर बच्ची को स्तन से लगाए रही। सुबह मुँह अंधेरे उठ गये हम दोनों। उसने चादर से मुँह ढंक लिया अपना और टिकट ले आयी। हमें बस पर बिठा अपने कलेजे के टुकड़े को सौंप दिया। हमारे गाँव का नाम पता एक कागज पर लिख ली उसने।
फिर बोली, “अम्मा ! किसी को कुछ पता नहीं चलना चाहिए। आज से यह तुम्हारी है। हम वहाँ सबसे कह देंगे कि ठंड लगने से मर गई तो फेंक आये नदी में।” उसकी आँखें नम थीं लेकिन एक अलग ही चमक भी थी। बस खुलने ही वाली थी। वह बच्ची को चूम कर तेजी से नीचे उतर गई।
तब से यह हमारे साथ ही है। मोहिनी दो-चार महीने पर आ जाती है मिलने। अब तो फोन खरीद कर दे दी है तो जब मौका मिलता है बात भी कर लेती है।
“अरी ओ नानी! हाथ काहे रूक गया तुम्हारा ? खाओ ना। हम इतना सारा नहीं खा पाएंगे ना।” चंचल हाथ पकड़ कर नानी को झकझोरती है तो वह वर्तमान में लौट आती है।
“अरे हाँ! खा ही तो रहे हैं। हो गया तुम्हारा तो तुम उठ जाओ।” वह हड़बड़ा कर बोली।
“हे हे हे… तुम भी न नानी बैठे-बैठे सो जाती हो। ” वह हँसती हुई चापानल की ओर भागी।
स्वरचित एवं मौलिक
©️ रानी सिंह