रोला छंद. . . .
रोला छंद. . . .
बचपन जाता बीत , रुके ना कभी जवानी ।
जरा काल में देह , वक्त की लिखे कहानी ।।
काल चक्र की चाल , बड़ी ही निर्मम होती ।
जब तक रहती साँस, जिंदगी यादें ढोती ।।
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विधना के यह खेल , समझ कब कोई पाया ।
इस जीवन को नित्य , नचाती उस की माया ।।
चला गया जो वक्त , लौट कर फिर कब आता ।
साँझ ढले तो छोड़ , जीव को साया जाता ।।
सुशील सरना / 21-10-24