रोक दो साजिशे तुम्हारी
इससे पहले बदले हम ,
रोक दो साजिशे तुम्हारी
लौट आओ घर समय पर
टूट ना जाए उम्मीदें हमारी
चकाचौंध में न जाए ,
यह आंखें कही तुम्हारी
वक्त आने दो हमारा
देखोगे शोहरतें हमारी
खुद ना आगे बढ़ना
दूसरों को रोकते हो ,
यह कौन सी लगी है
तुम्हें – यार – बीमारी |
कवि दीपक सरल