रेल सरीखे दौड़ती जिंदगी।
रेल सरीखे दौड़ती जिंदगी।
धूप सरीखे निकलती और ढलती जिंदगी।।
हवा सरीखे छूकर गुजराती जिंदगी।
आंखों से बेमौसम बरसती जिंदगी।।
जिसमें त्योहारों के चार दिन हैं
और कुछ हसीन चांद की रातें।
जिसमें छिपी है शहद से भी मीठी कोई याद
और कुछ नमकीन आंसू।।
जिसमें कुछ बचपन की मुस्कुराती तस्वीरें भी हैं
और अपने आंसू छिपाता एक इंसान।
जिसमें अचार की खुशबू भी है
और ऊपरी परत से झांकती हुई थोड़ी सी फंफूद।।
इन सब के बीच में कभी-कभी मैं खुद को
जब आईने के समक्ष रखता हूं।
तो कंकड़ फेंककर इमली तोड़ता हुआ
एक लड़का दिखता है।।
कुछ बिसरी हुई यादें दिखती है
और अपनी टूटी हुई चप्पल छिपाता एक बच्चा।
और जब कभी जिंदगी के जवान चश्मे को पहनता हूं
तो दिखता है टूटी चप्पल पहनकर बच्चे के लिए
सपने संजोता एक बाप।।
मोहब्बत की कुछ गजलें भी दिखतीं हैं
और दिखती हैं ज़िंदगी की जिम्मेदारियां।
महबूब के दिए गुलाब भी दिखते हैं
और कांटों में उलझा एक मर्द।।
फकीर की तरह अकेले आना
और हुजरे में चले जाना।
जिंदगी समंदर के तूफान की कश्ती हैं
हमने बस इतना ही जाना।।
– विवेक शाश्वत..