*रेल की पटरी से… खेत की मेड़ तक*
रेल की पटरी से… खेत की मेड़ तक
मेरी गोद के आंचल के साए में बड़े होकर मुझे नहीं पता था कि एक दिन तुम मुझे छोड़ कर शहर की ओर पलायन कर जाओगे । गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू , शीतल बयार और हरे-भरे पीले फूलों से लदे खेतों से तुम्हारा मन ऊब जाएगा । अमराईयों की डाल से आने वाली महक भी तुम्हें रोक नहीं पाएगी । यह तुम्हारा गांव पूरे विश्व का पेट भरता है हर मानव को रोटी देता है किसी को भूखा नहीं सुलता है फिर तुम्हें कैसे भूखा सुला सकता था । एक किसान के हाथों में ही ऐसा जादू है जो पूरे विश्व को रोटी खिलाने की हिम्मत रखता है उसी की मेहनत से खेतों में अन्न उगता है मगर आज तुम उस अन्न को उगाने वाले ही भूखे पेट, पैरों में छाले लिए, अपने घरों की तरफ पैदल ही निकल पड़े हो । मैंने तुम्हें बहुत रोका मगर शहर की चकाचौंध ने तुम्हें आकर्षित कर ही लिया था । कहते हैं न कि विपदा के समय माता का आंचल और मां की गोद ही सुहाती है और हम वहीं सुरक्षित महसूस करते हैं ।
कोरोना महामारी आपातकाल में सभी मजदूर अपने घरों की ओर पलायन कर रहे हैं अपने गांव की ओर वापस हो रहे हैं और तुम भी सभी के साथ अपने गांव लौट रहे हो । मैं बहुत खुश हूं । खेत – खलिहान और मैं तुम्हारी बाड़ देख रहे हैं । मेड़ पर बैठी हूं इंतजार में… अरे छुट्टन के बाबू मेरे पीछे खड़े होकर क्या देख रहे हो ? छुट्टन, गिरिधर, बाला, गुल्लू, चमन की क्या खबर है ? मैं सबकी खबर लाया हूं धीरज धर । रास्ता बहुत लंबा हो गया है अब पता नहीं कब तक पूरा होगा… होगा भी या नहीं … निगल गई शहर की चकाचौंध और मनहूस रेल की पटरी हमारे बबुआ, छुट्टन, चमन, गिरधर को । पता चला पटरी हुई थी लाल… अंगों का था बुरा हाल, रोटियां थी बिखारी, और सांस थी उखड़ी, चीख की आवाज भी नई आई सिर्फ ख़बर आई ।
भूख की तड़प, रोटियों की खनक, उम्मीद की सड़क सुनी हो गई ।
रेल की पटरी से मेड़ तक का सफ़र समाप्त हो गया ।