“रेत के घरौंदे”
बंद मुट्ठी से निकलते रेत के घरौंदे,
अपनी अपनी उदासियों को ले।
कहां छुपाएं ये मन की सिसकियां,
भूले बिसरे गीतों से ये प्रीत के मनके।
खुशबुओं का अंबार बिखरा हुआ,
मन का रीतापन भी सिमटा हुआ।
तोड़ लाएं हम कहां से वो तारे,
सपनों को जो जगमगा दें कभी।
दूर हैं हम सभी हंगामों से,
तिनका तिनका समेटे हुए।
आंखों से नूर जो टपका जाए,
रोक लेते हैं हम मुस्कुराते हुए।
बंद मुट्ठी से निकलते रेत के घरौंदे,
अपनी अपनी उदासियों को ले।
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”