रेडियो रूपक
–निर्णय
नेपथ्य से पानी बरसने का टिप टिप टिपा टिप संगीत सुनाई दे रहा है साथ ही फिल्मी गाने की आवाज भी जो कुछ लोगों की आवाजों के बीच दब गयी है–
“अरे रामू ,कट़िग चाय देना जरा..।”
“अरे भैया,सौ ग्राम गर्मागर्म पकौड़े दो ,तीखी चटनी के साथ .।”
“आज तौ मौसम बना दिया इस बारिश ने यार ..।”
“हाँ यार,पकौड़े के साथ कुछ और मँगवा लें क्या?”
“अरे,न ..बस एक फुल प्लेट पकौड़े और मँगवा लेते हैं और एक दोर कड़क चाय का भी।”
इन्हीं स्वरों के बीच एक स्वर उभरता है :-
” रामू भाई, जरा एक कड़क चाय तो दीजिए।”
“अरे मनोज सर,आप!!बहुत दिन में सर।….आप बैठिये ,बनाता हूँ।”
“ओ छोटू,जरा मनोज सर वाली टेबल ठीक से साफ कर दे।”रामू ने कहा
गाने की आवाज साफसुनाई देने लगी थी “तुझे गीतों में ढालूँगा ..सावन को आने दो.।”
“साहब ,आ जाइये ,आपकी टेबिल साफ है।”छोटू की आवाज से मनोज का ध्यान गाने से हटा।वह टेबिल की तरफ बढ़ा।
“साहब ,चाय के साथ कुछ और भी ले आऊँ क्या ?”मनोज ने,जो बाहर की बारिश का जायजा ले रहा था ,नजरें घुमाईं “नहीं छोटू,केवल चाय।”
“साहब कुछ हुआ है क्या ?”
“क्यों?
“आज आप परेशान लग रहे हैं?”छोटू की आवाज से मनोज चौंका कुछ कहता कि उसकी नज़र छोटू के पीछे खड़े शख्स पर पड़ गयी।
“अँ..हाँ,नहीं..।तू जा और फटाफट चाय के साथ फुल प्लेट पकौड़े ले आ गर्मागर्म।”
जी साहेब…”छोटू कीबात बीच में काटते एक जनानी आवाज आई “दो कड़क चाय भी छोटू।”
अरे मेमसाब..आप ।
आइये..।”कहते हुये छोटू ने एक चेयर पौंछकर टेबल के पास रख दी।
“क्या ,मैं आपकी टेबल शेयर कर सकती हूँ जनाब?”
“श्योर, ये भी कोई पूछने की बात है?बैठो न ।”मनोज का स्वर परिचयात्मक था।
कुछ पलों का सन्नाटा दोनों के मध्य।बस बारिश की बूंदों और गाने का संगीत उभर रहा था।
“क्या आने की उम्मीद नहीं थी या…।”जैसे जानबूझकर अधूरा छोड़ा गया स्वर उभरा
“हँ..थी भी और नहीं भी….।”मनोज का स्वर धीमा था
फिर एकसेकंड का मौन गहराया
“लो साहब जी कड़क चाय और मेमसाब जी गर्म पकौड़े।”
टेबल पर ट्रे रखने की आवाज से सन्नाटा भंग हुआ।
“तुम अभी तक यहीं हो न?या वापिस आई हो?”
“क्या मुझे लौट कर नहीं आना चाहिये था या चले जाना चाहिये था?”प्रश्न के प्रत्युत्तर में उलझा प्रश्न आया
“न..नहीं,मेरा वो मतलव नहीं था।”मनोज का गहरा कुछ गंभीर सा स्वर उभरा”इस्तीफा देते वक्त लग रहा था कि तुम हमेशा के लिए जल्द जाना चाहती हो । मुझसे भी दूर !इसलिए पूछ बैठा।”मनोज ने मानो सफाई दी
“ओहह..इसलिये बुलाया था फोन करके?आजमाना चाहा था क्या?”
“क्या तुम भी निशा!”मनोज हड़बड़ाया जैसे चोरी पकड़ी गयी हो।
“मनोज ,उस घटना के बाद मन खराब हो गया था। घुटन हो रही थी। मेरी चार सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया गया। चलो,वो कोई बात नहीं।पर मेरे केरेक्टर पर सवाल उठा कर ,लांछित करना सही था क्या?क्या मेरी कोई पर्सनल लाइफ नहीं हो सकती?”निशा का स्वर भीगा और कंठ भर्राया हुआ था।
“मुझे भी अफ़सोस है इस बात का। बॉस को कैसे पता लगा ?और पता लग भी गया तो यह हमारा निजी मामला था।जिसमें किसी को दखल नहीं देना चाहिये था।उसी घटना ने हमारे संबंधों पर सवाल खड़ा किया और बीच में दूरी भी !”मनोज हताश ,टूटे स्वर में बोला
“दूरी होती तो क्या मैं एक फोन काल पर आती मनोज?तुम कब समझोगे मुझे?”सन्नाटा फिर पसरा पर कुछ बोझिल सा
“एक माह से कहाँ थी तुम फिर…यहीं थी तो संपर्क क्यों न किया ?”
“यहाँ नहीं थी ,घर गयी थी।कुछ निर्णय लेना था जो यहाँ तनाव में रहकर नहीं ले सकती थी।”
“कैसा निर्णय निशा ?”मनोज की आवाज में संशय उभरा
“दिवेश से शादी करने का ।आने वाली दस तारीख को शादी है हमारी। आओगे न?”
“निशा!!यह क्या कह रही हो…?तुम यह निर्णय कैसे ले सकती हो?हमारे चार साल पुराने रिश्ते को कैसे तोड़ सकती हो?”बौखलाकर बोलता मनोज जैसे हतप्रभ हो गया।
“नहीं मनोज ,तुमसे प्रेम था ,आज भी है और कल भी रहेगा। क्योंकि वह दिल से था ,वक्ती जरुरत नहीं।पर सवाल मेरी निजी अस्मिता का भी था। दिवेश के लिए हाँ करने पर पापा ने भी तुम्हारे बारे में पूछा था।पर …।”
“पर क्या ,निशा बोलो ,पर क्या ? प्लीज यह निर्णय बदल लो मेरे लिए निशा।”
“नहीं मनोज ,यह निर्णय सोच समझ कर लिया है। ”
“. मुझे भूल तो नहीं जाओगी न निशा ..।”मनोज का टूटा, रूआंसा स्वर गूंजा
“नहीं,कभी नहीं”निशा का दृढ़ स्वर गूंजा”पर क्या तुम मुझे भुला दोगे मनोज?”
नहीं..कभी नहीं..।”
“साहब ,कुछ और लाऊँ…।
नेपथ्य में गाना बज रहा था
“तेरी दुनियाँ से दूर ,चले होकर मजबूर ,हमें याद रखना।”
मनोरमा जैन पाखी