रूण्ड हवा मे
रूण्ड हवा में
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ऐसे योग रहे
सच को दरें कुनैते झूठे
जुर्म किये बिन
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चमडी खींचें
पीड़ा भोग रहे ।
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शीश नहीं
कन्धे पर लेकिन
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रुण्ड हवा में
लाठी भांजे ।
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सोना-तपा
खरा हो निकला
चमका जितना
छीले-मांजे ।
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हस्ती मिटकर
बनती फिर है
राख उड़ाकर
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हम आगी को
भीतर जोग रहे ।
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ईधन आग
जलाने के हम
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फिर से झोंके
गये भाड़ में ।
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जान सौंपकर
किये काम को
ताकत-हिम्मत
रही हाड़ में ।
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सब कुछ टंगा
हमारे ऊपर
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रीढ़ झुकी पर
हारभ न मानें
लगते रोग रहें
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®सर्वाधिकार
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सुरक्षित
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®विनय पान्डेय
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