रूखा रे ! यह झाड़ / (गर्मी का नवगीत)
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रूखा रे ! यह झाड़,
धूप में खड़ा, भरोसे ।।
चट-चट करती शाख,
तने से छाल उतरती ।
पत्ते गिरे ज़मीन,
तपन से आँच उभरती ।।
वर्षा की उम्मीद
हृदय में पाले-पोसे ।।
रस-रस सूखा नीर,
जड़ों से चीख निकलती ।
यह नैसर्गिक पीर,
दर्द के अर्थ बदलती ।।
ओ ! निर्दय रवि आज,
काव्य-मन तुझको कोसे ।।
रूखा रे ! यह झाड़,
धूप में खड़ा,भरोसे ।।
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——- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।