रुकना तेरा धर्म नहीं रे !
तुम हो इक बहती धारा,
बाँध तोड़ सब बहना है ।
रुकना तेरा धर्म नहीं रे !
बस इतना ही कहना है ।
सुख-दुख दो जीवन के किनारे,
हानि-लाभ परिणाम तुम्हारे ।
धूप-छाँव तट को छूकर, बस
आगे ही बढ़ते रहना है ।
रुकना तेरा धर्म नहीं रे !
बस इतना ही कहना है ।..
आलिंगन सिंधु से प्यारे,
हर लेगा संताप ये सारे ।
खोकर के अस्तित्व अहं ,
बस उसके हो रहना है ।
रुकना तेरा धर्म नहीं रे !
बस इतना ही कहना है ।…
दीपक चौबे ‘अंजान’