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14 Dec 2021 · 2 min read

रिश्तों का फर्ज

लघुकथा
रिश्तों का फर्ज
*************
कल से उसकी बहुत याद आ रही थी। अजीब जी बेचैनी थी।ऐसा लग रहा था कि वो किसी संकट में है। उससे बीते कुछ समय से बात भी नहीं हो पाई थी।
आज जानें क्यों ऐसा लगा कि फोन कर ही लूँ जिससे शायद तसल्ली हो सके

अंततः फोन मिलाया। फोन की घंटी बज रही थी। पर फोन रिसीव नहीं हुआ। तीन प्रयास के बाद भी उत्तर नदारद।
अब मेरी बेचैनी और बढ़ गयी।
थोड़ी देर में उसका फोन आ गया। मैंनें फोन रिसीव किया तो उसके रोने का आभास हुआ।
मैंनें पूछा मगर वो रोये ही जा रही।मैंनें कहा कि या तो रो ले या फिर बात क्या है ये बता।
उसने रोते रोते जो बताया उसे सुनकर मैं सन्न रह गया।
मैंनें उसे ढाँढस बँधाया और बोला – अब रोना बंदकर खुश हो जाओ।
मैं आ रहा हूँ, मेरे रहते तेरे जीवन में अँधेरा नहीं होगा।
मगर आप ऐसा नहीं कर सकते। मैं आपका जीवन खतरे में नहीं डाल सकती।
बस अब कुछ मत बोलना। अपना पता भेजो, बस।
मगर भैया! आप उस बहन के लिए खुद को खतरे में मत डालो, जिसे आपने देखा तक नहीं है।
बड़ी सयानी हो गई है तू, मगर तू भी सुन! मैं तेरे लिए कुछ भी नहीं करने वाला।मैं तो बस तेरी उन राखियों का मान रखने की चेष्टा कर रहा हूँ जो तू मेरी कलाइयों के लिए बड़े प्यार से कई वर्षों से भेजती रही हो।
मगर भैया आप समझते क्यों नहीं ? वो रो पड़ी।
देख छुटंकी रोकर मुझे कमजोर मत कर। सब कुछ जानकर भी क्या मैं तेरी दुनियां उजड़ जाने दूँ? नहीं बहन।
रिश्तों का अपना फर्ज होता है और मैं उससे भाग नहीं सकता। ईश्वर पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जायेगा। तुम बस पता भेजो, मैं निकलने की तैयारी करता हूँ। …..और मैंनें फोन रख दिया।
©सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.
8115285921
©मौलिक, स्वरचित

Language: Hindi
1 Like · 270 Views
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